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________________ अर्थापत्ते: अनुमानेऽ तर्भावः रेवाखिलमनुमानमिति षट्प्रमाणसंख्याव्याघात: । भवतु वा सपक्षानुगमाननुगमभेदः, तथापि नैतावता तयोर्भेदः, अन्यथा पक्षधर्मत्वसहिताया अर्थापत्तस्तद्रहितार्थापत्तिः प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणसंख्याव्याघातः । अस्ति चार्थापत्तिः पक्षधर्मत्वरहिता "नदीपूरोप्यधोदेशे दृष्ट: सन्न परि स्थिताम् । नियम्यो गमयत्येव वृत्तां वृष्टि नियामिकाम् ।। १ ।। पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रब्राह्मणतानुमा। सर्व लोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ।। २ ।। इसप्रकार अर्थापत्ति पूर्णरूपसे अनुमानरूप ही है यह निश्चय हो जाता है और इस कारण से मीमांसकाभिमत षट्प्रमाण-संख्याका व्याघात हो जाता है। यदि आपके संतोष के लिये हम जैन मान भी लेवें कि हेतु या अनुमान में सपक्षका अनुगम-अन्वय रहता है और अर्थापत्ति में सपक्षानुगम नहीं होता है, अतः अनुमान और अर्थापत्ति में भेद है, सो इतने मात्रसे अनुमान और अर्थापत्ति में मौलिक भेद सिद्ध नहीं होता है, यदि इतने मात्रसे भेद किया जावेगा तो अर्थापत्ति में भी भेद होने लगेगा, इस तरह पक्षसत्त्व-पक्षधर्मसहित अर्थापत्ति से पक्षधर्म रहित अर्थापत्ति में पृथकप्रमाणता प्रावेगी । इसतरह से फिर भी प्रमाणसंख्या का व्याघात होगा ही, पक्षरहित अपित्ति होती भी है-देखिये - अधोदेश में देखा गया नदीपूर ऊपर के भाग में हुई वृष्टिका (बरसातका) नियम से ज्ञान कराता है, अर्थात् व्याप्य जो नदीपूर है उसे देखकर व्यापक जो वृष्टि है उसका निश्चय किया जाता है ।।१।। तथा माता पिता के ब्राह्मण होने से पुत्र में ब्राह्मणत्व का निश्चय किया जाता है, ये सब ज्ञान के हेतु पक्षधर्मत्व की अपेक्षा नहीं करते हैं ॥२॥ इसलिये जो लोग पक्षधर्मत्व को हेतु का ज्येष्ठ अंग (मुख्यअग) मानते हैं, उनकी इस मान्यता में इन पर्वोक्त नदीपूर आदि के उदाहरणों से व्यभिचार आता है; अर्थात् उपरि वृष्टि आदि हेतुओं में पक्षधर्मता नहीं है तो भी वे सत्य कहलाते हैं, अर्थात् अपने साध्य के गमक होते हैं ।।३।। इस प्रकार यह मानना चाहिये कि पक्षधर्मता से रहित भी अर्थापत्ति होती है। शंका-पक्षधर्मता से सहित अर्थापत्ति हो चाहे पक्षधर्मत्व से रहित अर्थापत्ति हो, दोनों के द्वारा समान रूप से ही अर्थ से अर्थान्तर-नदीपूर से वृष्टि का ज्ञान तो बराबर ही होता है अतः इन दोनों अर्थापत्तियों में परस्पर में कोई भेद नहीं, जैसा कि भिन्न २ प्रमाणों में होता है, इनमें तो अभेद ही रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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