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________________ अभावविचारः "प्रत्यक्षाद्यवतारश्व भावांशी गृह्यते यदा । व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षिते ॥ ४ ॥" [ मी० श्लो० प्रभाव० श्लो० १७ ] न च धर्मिणोऽभिन्नत्वाद्भावांशवदभावांशस्याप्यध्यक्षेणैव ग्रहः सदसदंशयोर्धर्म (र्म्य) भेदेप्यन्योन्यं भेदान्नायन रश्मिरूपादिवदभावस्यानुद् द्भूतत्वात् । न चाभावस्य भावरूपेण प्रमाणेन परिच्छित्तियुक्ता । प्रयोगः - यो यथाविधो विषयः स तथाविधेनैव प्रमाणेन परिच्छि (च्छे ) द्यते, यथा रूपादिभावो भावरूपेण चक्षुरादिना विवादास्पदीभूतवाभावस्तस्मादभावः ( दभावेन ) परिच्छेद्यत इति । उक्तं च Jain Education International "न तु ( ननु ) भावादभिन्नत्वात्सम्प्रयोगोस्ति तेन च । नात्यन्तमभेदोस्ति रूपादिवदिहापि नः ।। १ ।। धर्मयोर्भेद इष्टो हि धर्म्यभेदेपि नः स्थितेः । उद्भवाभिभवात्मत्वाद्ग्रहणं चावतिष्ठते ॥ २ ॥ [ मी० श्लो० प्रभाव० श्लो० १६-२० ] ५०६ के जाता है । यहां अभाव विवादापन्न है अतः वह अभाव प्रमाण द्वारा ही जाना जाता है । कहा भी है कि- शंकाकारका कहना है कि सद् और असद् दोनों अंश पदार्थ से भिन्न होने के कारण इन्द्रियके साथ दोनोंका संबंध है ? [ अतः इन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा दोनोंका ग्रहण होता है ] सो इसका समाधान करते हैं कि जैसे रूप और रसका अत्यंत प्रभेद है वैसा सत् और असतु अंशोंका अत्यन्त अभेद नहीं है [ अतः सत् ग्रहण करने पर भी असत् अगृहीत रहता है ] ऐसा ही हमारे यहां माना है ।। १ ।। हम मीमांसक यहां धर्मी के अभिन्न होनेपर भी धर्मो में भेद मानना इष्ट समझा जाता है, इसी व्यवस्था के कारण ही सत प्रौर असत अंशों में से एक की उत्पत्ति और दूसरेकी अनुत्पत्ति होना सिद्ध होता है एवं प्रत्यक्षादि प्रमाणोंद्वारा एकका ग्रहण और दूसरेका ग्रहण होना भी सिद्ध होता है ।। २ ।। यदि प्रभावको मेयरूप [ प्रमाणद्वारा जानने योग्य ] मानते हैं उसको जाननेवाला प्रमाण भी उसीतरहका प्रभावरूप मानना जरूरी है । जिसप्रकार सद्भावात्मक प्रमेयमें अभाव ज्ञानकी प्रामाणिकता नहीं रहती, उसी प्रकार अभावात्मक प्रमेयमें भाव ज्ञानकी प्रामाणिकता नहीं रहती [ कहने का अभिप्राय यह है कि सतु रूप वस्तुके अंशको जाननेमें अभावप्रमाण उपयोगी नहीं रहता इसीतरह असत्रूप वस्तुके अंशको जानने में भावरूप प्रत्यक्षादिप्रमाण उपयोगी नहीं रहते हैं । ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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