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________________ प्रामाण्यवाद: निर्दोषं परमागमार्थविषयं प्रोक्तं प्रमालक्षणम् । युक्त्या चेतसि चिन्तयन्तु सुधियः श्रीवर्द्धमानं जिनम् ।। १ ।। परिच्छेदावसाने प्राशिषमाह । चिन्तयन्तु । कम् ? श्रीवर्द्धमानं तीर्थकरपरमदेवम् । भूयः कथम्भूतम् ? जिनम् । के ? सुधियः । क्व ? चेतसि । कया ? युक्त्या ज्ञानप्रधानतया । भूयोपि कथम्भूतम् ? सिद्ध जीवन्मुक्तम् । भूयोपि कीदृशम् ? सर्वजनप्रबोधजननम् सर्वे च ते जनाश्च तेषां प्रबोधस्तं जनयतीति सर्वजनप्रबोधजननस्तम् । कथम् ? सद्यः झटिति । भूयोपि कीदृशम् ? अकलङ्काश्रयम्-कलङ्कानां द्रव्यकर्मणामभाव: प्रकलङ्कस्तस्याश्रयस्तम् । भूयोपि कथम्भूतम् ? मनोनन्दनम् । कथम् ? नित्यं सर्वदा । कुतः ? विद्यानन्दसमन्तभद्रगुरणतः - विद्या केवलज्ञानमानन्दः सुखं समन्ततो भद्राणि कल्याणानि समन्तभद्राणि विद्या चानन्दश्च समन्तभद्राणि च तान्येव गुरणारतेभ्यः ततः । भूयोपि कीदृशम् ? निर्दोषं रागादिभावकर्मरहितम् । भूयोपि कथम्भूतम् । परमागमार्थं विषयम् Jain Education International ४६३ है । तथा हमारे इस हेतु में अनैकान्तिक दोष भी नहीं है, क्योंकि जो ज्ञान सदोष कारण से होगा वह अप्रमाण ही रहेगा, इसलिये अप्रामाण्य साध्य और सदोषकारण प्रभवत्व हेतु का अविनाभाव है। जहां साधन साध्यका अविनाभाव है वहां पर वह साधन नैकान्तिकता बनता ही नहीं है । "विपक्षेऽप्यविरुद्ध वृत्तिरनैकान्तिकः " जो हेतु साध्य में रहता हुआ भी विपक्ष में रहता है वह हेतु श्रनैकान्तिक होता है । यहां प्रामाण्य साध्य है उसका विपक्ष प्रामाण्य है उसके साथ यह अनिराकृत दोष कारण प्रभवत्व हेतु नहीं रहता, ग्रतः श्रनैकान्तिक नहीं है । यह विरुद्ध दोषयुक्त भी नहीं है, क्योंकि जो हेतु साध्य से विपरीत साध्य में ही रहता है वह विरुद्ध होता है, यहां श्रप्रामाण्य से विपरीत जो प्रामाण्य है उसमें हेतु नहीं रहता है, अतः विरुद्ध नहीं है । इस प्रकार असिद्ध आदि तीनों दोषों से रहित "अनिराकृतदोष कारणप्रभवत्व हेतु अपना साध्य जो वेदजन्य बुद्धि में प्रप्रामाण्य है उसको सिद्ध करता है । अब श्री प्रभाचन्द्राचार्य प्रथम अध्याय के अन्त में मंगलाचरण करते हैंसिद्धं सर्वजनप्रबोधजननं सद्योऽकलंकाश्रयम् । विद्यानंदसमन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनंदनम् || निर्दोषं परमागमार्थविषयं प्रोक्तं प्रमालक्षणम् । युक्त्या चेतसि चिन्तयन्तु सुधियः श्रीवर्द्धमानं जिनम् ॥ १ ॥ प्राचार्य आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि हे भव्यजीवो । आप केवलज्ञानादि स्वरूप श्रीवर्द्धमान प्रभु का चिन्तवन- ध्यान करो, क्योंकि वे संपूर्ण जीवों के लिये For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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