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________________ ४२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तेत तदपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं प्रमाणकारणगुणग्रहणलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तेत तदपि च स्वकारणगुणज्ञानापेक्षमिति । तस्य स्वकारणगुणज्ञानानपेक्षस्यैव प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवृत्तौ प्रथमस्यापि कारणगुणज्ञानानपेक्षस्यार्थपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात् । तदुक्तम् - 'जातेपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते । यावत्कारणशुद्धत्वं न प्रमाणान्तराद्गतम् ।। १।। के नेत्र भी गुणवान् हैं कि नहीं इसकी भी जानकारी होनी चाहिये, इस प्रकार एक प्रमाण के कार्य होने में अनेकों प्रमाणभूत व्यक्तियों की और ज्ञानों को आवश्यकता होती रहेगी, तब अनवस्था तो आ ही जायगी, फिर भी प्रमाण का कार्य तो हो ही नहीं सकेगा, जैसे संसारी जीवों की आकांक्षाएँ आगे २ बढ़ती जाती हैं - यह कार्य हो जाय, यह मकान बन जाय, इसी की चिंता मिटे तो धर्मकार्य को करूगा इत्यादि, वैसे ही प्रमाण का कार्य तभी हो जब उसके कारणगुणों का ज्ञान हो, पुन: वह ज्ञान जिससे होगा उसकी सत्यता जानने की अपेक्षा होगी इत्यादि अपेक्षाएँ बढ़ती जावेगी और प्रमाण का कार्य यों ही पड़ा रह जायगा । अब यहां पर अनवस्था दोष को मिटाने के लिये कोई चतुर व्यक्ति कहे कि प्रमाण के कारणगुणों को जाननेवाला जो ज्ञान है उसको अपने कारणगुण के ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती है, वह तो उसकी अपेक्षा के विना ही अपना कार्य जो प्रमाण के कारणगुणों का जानना है उसमें स्वयं प्रवृत्त होता है, ऐसा कहने पर तो वह पहला प्रमाण भी कारणगुणों के ज्ञान की अपेक्षा किये विना ही अपने कार्य-पदार्थ को जानना आदि को स्वत: कर सकेगा, दोनों में प्रथम प्रमाण और उस प्रथम प्रमाण के कारण गुणों को जानने वाला प्रमाण इनमें कोई भी विशेषता नहीं है जिससे कि एक को तो कारणगुण के ज्ञान की अपेक्षा लेनी पड़े और एक को नहीं लेनी पड़े इस प्रकार के अनवस्था के विषय में हमारे ग्रन्थ में भी कहा गया है अब हम उसे प्रकट करते हैं-ज्ञान उत्पन्न होने पर भी तबतक वह अपने विषय का निर्धार नहीं करता है जबतक कि वह अन्यज्ञान से अपने कारणगुण की शुद्धता को नहीं जानता, इस प्रकार की जो मान्यता है उसमें आगे कहा जानेवाला अनवस्था दोष पाता है-जब प्रथमज्ञान अपनी प्रवृत्ति में अपने कारणगुणों को जानने के लिये अन्य की अपेक्षा रखता है तब वह दूसरा ज्ञान भी अपने कारणगुण को जाननेवाले की अपेक्षा लेकर प्रथमज्ञान के कारणगुणों को जानने में प्रवृत्त होगा, क्योंकि जबतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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