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________________ प्रामाण्यवाद: ४२३ किञ्च, समानकालमर्थक्रियाज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकम्, भिन्नकालं वा ? यद्य क. कालम् ; पूर्वज्ञान विषयम्, तदविषयं वा ? न तावत्तदविषयम् ; चक्षुरादिज्ञाने ज्ञानान्तरस्याप्रतिभासनात्, प्रतिनियतरूपादिविषयत्वात्तस्य । तदविषयत्वे च कथं तज्ज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकत्वं तदग्रहे तद्धर्माणा ग्रहणविरोधात् । भिन्नकालमित्यप्ययुक्तम् ; पूर्वज्ञानस्य क्षणिकत्वेन नाशे तदग्राहकत्वेनोत्तरज्ञानस्य तत्प्रामाण्य निश्चायकत्वायोगात् । सर्वप्राणभृतां प्रामाण्ये सन्देहविपर्ययाक्रान्तत्वासिद्धश्च । समुत्पन्न खलु विज्ञाने 'अयमित्थमेवार्थः' इति निश्चयो न सन्देहो विपर्ययो वा । तदुक्तम् । "प्रमारणं ग्रहणात्पूर्व स्वरूपेणैव संस्थितम् । निरपेक्षं स्वकार्ये च गृह्यते प्रत्ययान्तरैः॥१॥" [ मी० श्लो• सू० २ श्लो. ८३ ] इति तथा--एक प्रश्न यह भी होता है कि अर्थक्रिया का ज्ञान जो कि पूर्वज्ञान में प्रमाणता को बतलाता है, वह उसके समकालीन है या भिन्नकालीन है ? यदि समकालीन है तो उसी पूर्वज्ञान के विषय को जानने वाला है या नहीं ? समकालीनज्ञान का विषय वही है जो पूर्वज्ञान का है ऐसा कहो तो असंभव है, क्योंकि चक्षु घ्राण आदि पांचों ही इन्द्रियों के ज्ञानों में ज्ञानरूप विषय प्रतिभासित होता ही नहीं, इन्द्रियों का विषय तो अपना २ निश्चित रूप गंधादि है । इस प्रकार समकालीन ज्ञान पूर्वज्ञान को विषय करनेवाला हो नहीं सकता है, यह सिद्ध हुआ । अब यदि उसको विषय नहीं करे तो बताईये वह पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय कैसे करायेगा ? अर्थात् नहीं कर सकता, जब वह पूर्वज्ञान को ग्रहण ही नहीं कर सका तो उसका धर्म जो प्रामाण्य है उसे कैसे ग्रहण करेगा ? अर्थक्रिया का ज्ञान भिन्न काल में रहकर पूर्वज्ञान की प्रमाणता को बतलाता है ऐसा दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि पूर्वज्ञान क्षणिक होने से नष्ट हो चुका है अब उसका अग्राहक ऐसा उत्तर ज्ञान उसके प्रामाण्य का निश्चय नहीं करा सकता । एक बात यह भी है कि सभी प्राणियों के प्रामाण्य संदेह एवं विपर्यय रहता ही नहीं, क्योंकि सभी ज्ञान जब भी उत्पन्न होते हैं तब वे संशयादि से रहित ही उत्पन्न होते हैं, अतः उनको अन्य की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती है । ज्ञान उत्पन्न होते ही "यह पदार्थ इस प्रकार का है" ऐसा निश्चय नियम से होता है उस समय उसमें न संशय रहता है, और न विपर्यय ही रहता है । कहा भी हैप्रामाण्य जिसका धर्म है ऐसा वह प्रमाण (ज्ञान) स्वग्रहण के पहिले स्वरूप में स्थित रहता है, तथा अपना कार्य जो पदार्थ की परिच्छित्ति है उसको संवादकज्ञान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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