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________________ ४१२ प्रमेयकमलमासण्डे किञ्च, स्वभावहेतोः, कार्यात्, अनुपलब्धेर्वा तत्प्रभवेत् ? न तावत्स्वभावात्, तस्य प्रत्यक्षगृहीतेर्थे व्यवहारमात्रप्रवर्तनफलत्वावृक्षादौ शिशपात्वादिवत् । न चात्यक्षाऽक्षाश्रितगुणलिङ्गसम्बन्धः प्रत्यक्षतः प्रतिपन्नः । कार्यहेतोश्च सिद्ध कार्यकारणभावे कारणप्रतिपत्तिहेतुत्वम्, तसिद्धिश्चाध्यक्षानुपलम्भप्रमाणसम्पाद्या । न चेन्द्रियगुणाश्रितसम्बन्धग्राहकत्वेनाध्यक्षप्रवृत्तिः, येन तत्कार्यत्वेन कस्यचिल्लिङ्गस्याप्यध्यक्षतः प्रतिपत्ति: स्यात् । अनुपलब्धेस्त्वेवं विधे विषये प्रवृत्तिरेव न सम्भवत्यभावमात्रसाधकत्वेनास्याः व्यापारोपगमात् । बन जावेंगे । क्योंकि हेतु का अपने साध्य के साथ अविनाभाव होना जरूरी नहीं रहा है। अच्छा आप जैन यह बताइये कि इन्द्रियगुणों को सिद्ध करनेवाला अनुमान स्वभावहेतु से प्रवृत्त होता है कि कार्य हेतु से प्रवृत्त होता है या कि अनुपलब्धिरूप हेतु से प्रवृत्त होता है ? यदि कहा जाय कि स्वभावहेतु से उत्पन्न हुना अनुमान गुणों को सिद्ध करता है सो ऐसा कहना ठीक नहीं-क्योंकि स्वभाव हेतु वाला अनुमान प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में व्यवहार कराता है, यही इस अनुमान का काम है, जैसे कि जब वृक्षत्वको शिशपाहेतु से सिद्ध किया जाता है-"वृक्षोऽयं शिशपात्वात्" यह वृक्ष है क्योंकि शिशपा है इत्यादि । तब यह स्वभाव हेतु वाला अनुमान कहलाता है । ऐसे स्वभावहेतु वाले अनुमान से गुणों की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि इन्द्रियों के आश्रय में रहनेवाले जो अतीन्द्रिय गुण हैं उन्हें आप प्रामाण्य का हेतु मान रहे हैं, सो इन्द्रिय गुण और प्रामाण्य का जो संबंध है वह प्रत्यक्षगम्य तो है नहीं, अतः स्वभाव हेतु वाला अनुमान गुणों का साधक है ऐसा कहना बनता नहीं है । यदि कहा जाय कि कार्य हेतु से गुणों का सद्भाव सिद्ध होता है सो ऐसा कहना भी ठीक वहीं, क्योंकि अभी तक उनमें कार्यकारण भाव सिद्ध नहीं हुआ है, जब वह सिद्ध हो तब कार्य से कारणों की प्रतिपत्ति होना बने । कार्यकारणभाव की प्रतिपत्ति तो प्रत्यक्ष प्रमाण से या अनुपलब्धि हेतुवाले अनुमान से हो सकती है, किन्तु यहां जो इन्द्रियगुणों के आश्रय में रहनेवाला प्रामाण्य है उनके संबंध को अर्थात् इन्द्रियों के गुण (नेत्रनिर्मलतादि) कारण हैं और उनका कार्य प्रामाण्य है इस प्रकार के संबंध को प्रत्यक्ष प्रमाण तो ग्रहण कर नहीं सकता है, जिससे कि कार्यत्व से किसी हेतु की प्रतिपत्ति प्रत्यक्ष से करली जावे, मतलब यह प्रामाण्यरूप कार्य प्रत्यक्ष हो रहा है अत: इन्द्रियों में अवश्य ही गुण हैं इत्यादि कार्यानुमान तब बने जब इनका अविनाभाव संबंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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