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________________ ४०४ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे चोदना जनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवर्जितैः । कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिङ्गाप्रोक्त्यक्षबुद्धिवत् ॥ १ ॥ - मीमांसा ० सूत्र २ श्लोक १८४ - अर्थ – चोदता - अर्थात् वेद से उत्पन्न हुई बुद्धि प्रमाणभूत है, क्योंकि यह ज्ञान निर्दोष कारणों से हुआ है । जैसे कि हेतु से उत्पन्न हुआ अनुमान तथा आप्तवचन और इन्द्रियों से उत्पन्न हुग्रा ज्ञान स्वतः प्रामाणिक है, वैसे ही वेदवाक्य से उत्पन्न हुग्रा ज्ञान प्रामाण्य है क्योंकि वेद स्वतः प्रमाणभूत है, इस प्रकार सभी प्रमाण स्वतः प्रामाण्यरूप ही उत्पन्न होते हैं, यह सिद्ध होता है । यहां पर कोई प्रश्नकर्त्ता प्रश्न करता है कि प्रमाणों में प्रामाण्य स्वतः ही होता है यह तो मीमांसक ने स्वीकार किया है, किन्तु जब कोई भी प्रमाण उत्पन्न होता है तब उसी उत्पत्ति के क्षरण में तो वह अपने प्रामाण्य को ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि वह तो उसकी उत्पत्ति का क्षरण है, इस प्रकार जिसका प्रामाण्य जाना ही नहीं है उसके द्वारा लोक व्यवहार कैसे होवे, सो इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार से है Jain Education International प्रमाणं ग्रहणात् पूर्वं स्वरूपेणैव संस्थितम् । निरपेक्षं स्वकार्येषु गृह्यते प्रत्ययान्तरैः ॥ ३ ॥ विनैवात्मग्रहणेन प्रमाणं स्वसत्तामातेणैव संस्थितं कृत कार्यं भवति अर्थपरिच्छेद करणात् परिच्छिन्ने चार्थे तन्मात्रनिबंधनत्वात् कार्यस्य व्यवहारस्य तत्रापि तात्यापेक्षा एवं कृतकार्ये पश्चात् संजातायां जिज्ञासायामानुमानिकैः प्रत्ययान्तरैगृह्यते । अर्थ - प्रमाणभूत ज्ञान स्वग्रहण के पहिले स्वरूप में स्थित रहता है । वह तो अपना जानने का जो कार्य है उसके करने में अन्य से निरपेक्ष है । पीछे भले ही अन्य अनुमानादि से उसका ग्रहण हो जाय । मतलब - प्रमाण तो वह है जो पदार्थ को जानने में साधकतम है -करण है । उस साधकतम प्रमाण के द्वारा पदार्थ को जानना यही उसका कार्य है । व्यवहार में भी प्रमाण की खोज या जरूरत पदार्थ को जानने के लिये ही होती है । यह जो अपना उसका प्रर्थपरिच्छित्तिरूप कार्य है उसको प्रमाण उत्पन्न होते ही कर लेता है, उस कार्य को करने के लिये उसे स्वयं को ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है । अर्थातु कुछ भी श्रावश्यकता नहीं है । प्रमाण का अर्थ परिच्छित्ति रूप कार्य समाप्त हो जाने पर व्यक्ति को उसके जानने की इच्छा होने से अनुमानों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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