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________________ ३८८ प्रमेयकमलमार्तण्डे नापि शक्तिक्षयात्, ईश्वरात्, विषयान्तरसञ्चारात्, अदृष्टाद्वाऽनवस्थाभावः । न हि शक्तिक्षयाच्चतुर्थादिज्ञानस्यानुत्पत्त रनवस्थानाभावः। तदनुत्पत्तौ प्राक्तनज्ञानासिद्धिदोषस्य तदवस्थत्वात् । तत्क्षये च कुतो रूपादिज्ञानं साधनादिज्ञानं वा यतो व्यवहारः प्रवर्तेत ? न च चतुर्थादिज्ञानजननशक्त - रेव क्षयो नेतरस्या:; युगपदनेकशक्त्यभावात् । भावे वा तथैव ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गः । नित्यस्यापरापेक्षाप्यसम्भाव्या । क्रमेण शक्तिसद्भावे कुतोऽसौ ? न तावदात्मनोशक्तात्, तदसम्भवात् । शक्त्यन्तरकल्पने चानवस्था। यदि यौग अपना पक्ष पुन: इस प्रकार से स्थापित करें कि प्रात्मा दो या तीन ज्ञान से अधिक ज्ञान पैदा कर ही नहीं सकता अत: अनवस्था दोष नहीं आता है, आत्मा में दो तीन ज्ञान से अधिक ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है अत: ज्ञानान्तरों को लेकर आने वाली अनवस्था रुक जाती है । तथा ज्ञानान्तरों की अनवस्था को ईश्वर रोकता है अथवा विषयांतर संचार हो जाता है। मतलबप्रथमज्ञान पदार्थ को जनता है, तब द्वितीयज्ञान उसे जानने के लिये प्राता है, उसके बाद उस ज्ञान का विषय ही बदल जाता है । अदृष्ट इतना ही है कि आगे आगे अन्यान्य ज्ञान पैदा नहीं हो पाते हैं, इस प्रकार शक्ति क्षय, ईश्वर, विषयान्तर संचार और अदृष्ट इन चारों कारणों से चौथे आदि ज्ञान आत्मा में उत्पन्न नहीं होते हैं। अब इन पक्षों के विषय में विमर्श करते हैं-शक्ति का नाश हो जाने से तीन से ज्यादा ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं इसलिये अनवस्था दोष नहीं आता है ऐसा पहिला विकल्प मानो तो ठीक नहीं, क्योंकि यदि चौथाज्ञान उत्पन्न नहीं होगा तो पहिले के सब ज्ञान सिद्ध नहीं हो पायेंगे। क्योंकि प्रथमज्ञान दूसरेज्ञान से सिद्ध होना माना गया है और दूसराज्ञान तीस रेज्ञान से सिद्ध होना माना गया है, अब देखिये-तीसरे ज्ञान की सिद्धि किससे होगी, उसके सिद्ध हुए विना दूसराज्ञान सिद्ध नहीं हो सकता, और दूसरेज्ञान के विना पहिला ज्ञान सिद्ध नहीं हो सकता, ऐसे तीनों ही ज्ञान प्रसिद्ध होंगे। अतः चौथे ज्ञान की जरूरत पड़ेगी ही, और उसके लिये पांचवें ज्ञान की, इस प्रकार अनवस्था तदवस्थ है, उसका प्रभाव नहीं कर सकते। यदि प्रतिपत्ता की शक्ति का क्षय होने से चौथे आदि ज्ञान पैदा नहीं होते हैंतब रूप, रस, आदि का ज्ञान कैसे पैदा होगा, क्योंकि उस प्रथम ज्ञान को जानने में अन्य दो ज्ञान लगे हुए हैं और उनकी सिद्धि होते होते ही शक्ति समाप्त हो जावेगी, फिर रूपज्ञान, साधनज्ञान आदि ज्ञान किसी प्रकार भी उत्पन्न नहीं हो पावेंगे और इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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