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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद: ३६१ विरुद्धा 'भवति तिष्ठति' इत्यादिक्रियाणां क्रियावत्येव सर्वदोपलब्धः । ज्ञप्तिरूपक्रियायास्तु विरोधो दूरोत्सारित एव; स्वरूपेण कस्यचिद्विरोधासिद्ध:, अन्यथा प्रदीपस्यापि स्वप्रकाशनविरोधस्तद्धि स्वकारणकलापात्स्वपरप्रकाशात्मकमेवोपजायते प्रदीपवत् । ___ ज्ञानक्रियायाः कर्मतया स्वात्मनि विरोधस्ततोऽन्यत्रैव कर्मत्वदर्शनादित्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; प्रदीपस्यापि स्वप्रकाशनविरोधानुषङ्गात् । यदि चैकत्र दृष्टो धर्मः सर्वत्राभ्युपगम्यते, तर्हि घटे प्रभास्वरोष्ण्यादिधर्मानुपलब्धेः प्रदीपेप्यस्याभावप्रसङ्गः, रथ्यापुरुषे वाऽसर्वज्ञत्वदर्शनान्महेश्वरेप्यसर्वज्ञत्वानुषङ्गः। यसम्भवे ज्ञानेन किमपराद्ध येनात्रासौ नेष्यते ? पाया जाता है, तीसरापक्ष-धातु के अर्थरूप क्रिया का विरोध कहो तो ठीक नहीं देखोश्वति, गच्छति, निष्ठति आदि धातुरूप क्रिया तो क्रियावान् में हमेशा ही उपलब्ध होती है । चौथा विकल्प-ज्ञान में ज्ञप्ति जानने रूप क्रिया का विरोध है ऐसा कहना तो दूर से ही हटा दिया समझना चाहिये । क्या कोई अपने स्वरूप से ही विरोध होता है । अर्थात् नहीं होता, यदि आप ज्ञान में अपने को जानने रूप क्रिया का विरोध मानते हैं तो दीपक में भी अपने को प्रकाशित करने का विरोध प्राने लगेगा, अतः निष्कर्ष यह निकला कि ज्ञान अपनी कारण सामग्री से-ज्ञानावरण के क्षयोपशमादि से जब उत्पन्न होता है तब वह अपने और पर को जाननेरूप क्रिया या शक्तिरूप ही उत्पन्न होता है । जैसे दीपक अपनी कारण सामग्री-तेल बत्ती आदि से उत्पन्न होता हुआ स्व पर को प्रकाशित करने स्वरूप ही उत्पन्न होता है । योग-ज्ञान क्रिया का कर्मरूप से अपने में प्रतीत होने में विरोध माना है, क्योंकि अपने से पृथक् ऐसे घट आदि में ही कर्मरूप प्रतीति होती है । जैन-यह कथन विना सोचे किया है, यदि इस तरह कर्मरूप से प्रतीत नहीं होने से ज्ञान में अपने को जाननेरूप क्रिया का विरोध करोगे तो दीपक में भी स्व को प्रकाशित करने रूप क्रिया का विरोध प्रावेगा। _आप यदि एक जगह पाये हुए स्वभाव को या धर्म को सब जगह लगाते हैं अर्थात् छेदन आदि क्रिया का अपने आप में होने का विरोध देखकर जानना आदि क्रिया का भी अपने आप में होने का विरोध करते हो तब तो बड़ी आपत्ति आवेगी। देखो-घट में कान्ति उष्णता आदि धर्म नहीं है, अतः दीपक में भी उसका प्रभाव मानना पड़ेगा, अथवा रथ्यापुरुष में असर्वज्ञपना देखकर महेश्वर को भी असर्वज्ञ मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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