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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः तेनात्मनो ज्ञानद्वयस्य चाग्रहणे 'अत्रेदं समवेतम्' इति प्रतीत्ययोगात् । तस्य तत्र समवेतत्वमेव तद् ग्रहगमित्यपि नोत्तरम् ; प्रन्योन्याश्रयात्-सिद्ध हि 'इदमत्र' इति ग्रहणे तत्र समवेतत्वसिद्धिः, तस्याश्च तद्ग्रहणसिद्धिः। यश्चात्मीयज्ञानमात्मन्यपि स्थितं न जानाति सोर्थजातं जानातीति कश्चेतनः श्रद्दधीत ? नापि ज्ञानेन 'स्थाणावहं समवेतम्' इति प्रतीयते; तेनाप्याधारस्यात्मनश्चाग्रहणात् । न च तदग्रहणे 'ममेदं रूपमत्र स्थितम्' इति सम्भवः । अस्तु वा समवेतत्वप्रतीतिः, तथापि-स्वज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वात्सर्वज्ञत्वविरोधः । तदप्रत्यक्षत्वे चानेनाशेषार्थस्याप्यध्यक्षताविरोधः। कथमन्यथात्मान्तरज्ञानेनाप्यर्थसाक्षात्करणं न स्यात् ? तथा योग- उस ज्ञानद्वय का वहां पर समवेत होना ही उसका ग्रहण कहलाता है, अर्थात् ईश्वर में ज्ञानद्वय का रहना ही उसका उसके द्वारा ग्रहण होना है। जैन - यह उत्तर भी प्रयुक्त है, इस उत्तर से तो अन्योन्याश्रय दोष होगा, वह कैसे सो बताते हैं- पहिले “यहां पर यह है" ऐसा सिद्ध होने पर उस ज्ञानद्वय का ग्रहण सिद्ध होगा, अर्थात् ईश्वर में ज्ञानद्वय का समवेतत्व सिद्ध होगा और उसके सिद्ध होने पर “यहां पर यह है'' ऐसा ग्रहण होगा। अाश्चर्य की बात है कि अपने में ही स्थित अपने ज्ञान को जो नहीं जानता है वह संपूर्ण वस्तुओं को जानता है ऐसे कथन में कौन बुद्धिमान् विश्वास करेगा ? अर्थात् कोई भी नहीं करेगा, इस प्रकार ईश्वर के द्वारा ही ईश्वर के ज्ञानद्वय का समवेतपना जाना जाता है, ऐसा कहना सिद्ध नहीं हुआ। अब यदि, उस ईश्वर के दोनों ज्ञानों द्वारा अपना वहां समवेत होना जाना जाता है कि ईश्वर में हम समवेत हैं ऐसा पक्ष यदि स्वीकार करो तो भी गलत है । देखो-वह जो ज्ञानद्वय है वह भी अपने आधारभूत ईश्वर को नहीं जानता है और न स्वयं को ही जानता है तो विना जाने यह मेरा स्वरूप है वह यहां पर स्थित है ऐसा जानना संभव नहीं । अच्छा आपके आग्रह से हम मान भी लेवें कि ईश्वर में ज्ञानद्वय के समवेतत्व का निश्चय होता है तो भी कुछ सार नहीं निकलता, क्योंकि ईश्वर का स्वयं का ज्ञान तो अप्रत्यक्ष है, अतः उस ईश्वर में सर्वज्ञपना मानने में विरोध प्रायेगा। तथा ईश्वरज्ञान अप्रत्यक्ष है (परोक्ष है) ऐसा मानते हो तो उस अप्रत्यक्षज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार होने में भी विरोध आता है, ऐसी विरोध की बात नहीं होती तो अन्य आत्मा के ज्ञान के द्वारा भी संपूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार होना क्यों नहीं मानते ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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