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________________ * ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः । * * * * एतेनैतदपि प्रत्याख्यातम् 'ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्य प्रमेयत्वात्पटादिवत् ;' सुखसंवेदनेन हेतोयंभिचारान्महेश्वरज्ञानेन च, तस्य ज्ञानान्तरावेद्यत्वेपि प्रमेयत्वात् । तस्यापि ज्ञानान्तरप्रत्यक्षत्वेऽनवस्था योग-नैयायिक एवं वैशेषिक "ज्ञान अपने आपको नहीं जानता, किन्तु दूसरे ज्ञान से ही वह जाना जाता है। ऐसा मानते हैं, इस योग की मान्यता का खंडन प्रभाकर के प्रात्मपरोक्षवाद के निरसन से हो जाता है। फिर भी इस पर विचार किया जाता है-"ज्ञान प्रमेय है इसलिये वह दूसरे ज्ञान से जाना जाता है जैसे घट पटादि प्रमेय होने से दूसरे ज्ञान से जाने जाते हैं। ऐसा योग का कहना है किन्तु इस अनुमान में जो प्रमेयत्व हेतु दिया गया है वह सुख संवेदन के साथ और महेश्वर के ज्ञान के साथ व्यभिचरित होता है, क्योंकि इनमें प्रमेयता होते हुए भी अन्यज्ञान द्वारा वेद्यता नहीं है-अर्थात् सुखादिसंवेदन दूसरे ज्ञान से नहीं जाने जाकर स्वयं ही जाने जाते हैं, यदि इन सुखादिसंवेदनों को भी अन्यज्ञान से ये जाने जाते हैं ऐसा माना जाय तब तो अनवस्था होगी, क्योंकि सुखसंवेदन को जानने वाला दूसरा ज्ञान किसी तीसरे ज्ञान के द्वारा जाना जायगा और वह तीसरा ज्ञान भी किसी चतुर्थज्ञान के द्वारा जाना जायेगा, इस तरह कहीं पर भी विश्रान्ति नहीं होगी। योग-प्रनवस्था दोष नहीं आवेगा, देखिये- महेश्वर में नित्य ही दो ज्ञान रहते हैं और वे नित्यस्वभाववाले होते हैं। उन दो ज्ञानों में एक ज्ञान के द्वारा तो महेश्वर सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है और दूसरे ज्ञान के द्वारा उस प्रथम ज्ञान को जानता है, बस-इस प्रकार की मान्यता में अन्य अन्य ज्ञानों की आवश्यकता ही नहीं है, उन दो ज्ञानों से ही कार्य हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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