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________________ ३५६ प्रमेयकमलमार्तण्डे और भी कहा है-- ____ "नासाधना प्रमाण सिद्धि पि प्रत्यक्षादिव्यतिरिक्त प्रमाणाभ्युपगमो...नापि च तयैव व्यक्त्या तस्य ग्रहणमुपेयते येनात्मनि विरोधो भवेत्, अपि तु प्रत्यक्षादिजातीयेन प्रत्यक्षादिजातीयस्य ग्रहणमातिष्ठामहे । न चानवस्थाऽस्ति किञ्चित्प्रमाणं यः (यत्) स्वज्ञानेन अन्यधी हेतुः, यथा धूमादि, किञ्चित् पुनरज्ञातमेव बुद्धि साधनं यथाचक्षुरादि तत्र पूर्वं स्वज्ञाने चक्षुराद्यपेक्षम् चक्षुरादि तुज्ञानानपेक्षमेव ज्ञानसाधनमिति क्वानवस्था ? बुभुत्सया च तदापि शक्यज्ञानं, सा कदाचिदेव क्वचिदिति नानवस्था । - न्याय वा० ता० टी० पृ० ३७० अर्थ - हम नैयायिक प्रमाण को अहेतुक नहीं मानते अर्थात् जैसे मीमांसक लोग ज्ञान को किसी के द्वारा भी जानने योग्य नहीं मानते वैसा हम लोग नहीं मानते, हम तो ज्ञान को अन्य ज्ञान से सिद्ध होना मानते हैं। जैन के समान उसी ज्ञान मे पदार्थ को जानना और उसी ज्ञान से स्व को-अपने आपको जानना ऐसी विपरीत बात हम स्वीकार नहीं करते, प्रत्यक्षादि ज्ञानों को जानने के लिये तो अन्य सजातीय प्रत्यक्षादि ज्ञान आया करते हैं, इस प्रकार ज्ञानान्तर ग्राहक ज्ञान को मानने से वहां अनवस्था आने की शंका भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि कोई प्रमाण ज्ञान तो ऐसा होता है जो अपना ग्रहण किसी से कराके अन्य को जानने में हेतु या साधक बनता हैजैसे धूम आदि वस्तु प्रथम तो नेत्र से जानी गई और फिर वह ज्ञात हुआ धूम अन्य जो अग्नि है उसे जनाने में साधकतम हुआ । एक प्रमाण ऐसा भी होता है कि जो अज्ञात रहकर ही अन्य के जानने' में साधक हुमा करता है, जैसे-चक्षु आदि इन्द्रियां धूम के उदाहरण में तो धूमादि के ग्रहण में चक्षु आदि की अपेक्षा हुई किन्तु चक्षु आदिक तो स्वग्रहण किये विना ही अन्यत्र ज्ञान में हेतु हुआ करते हैं । अत: अनवस्था का कोई प्रसंग नहीं आता है, जानने की इच्छा भी शक्य में ही हुआ करती है । अर्थात्-सभी ज्ञानों में अपने आपको जानने की इच्छा नहीं होती, क्वचितु ही होती है । कभी २ ही होती है, हमेशा नहीं, “इसलिये ज्ञान का अन्य के द्वारा ग्रहण होना मानें तो अनवस्था आवेगी", ऐसी आशंका करना व्यर्थ है, "तस्माज्ज्ञानान्तरसंवेद्य संवेदनं वेद्यत्वात् घटादिवत्"-प्रश० व्यो० पृ० ५२६ । अनवस्थाप्रसङ्गस्तु अवश्यवेद्यत्वानभ्युपगमेन निरसनीयः । इसलिये ज्ञान तो अन्य ज्ञान से ही जानने योग्य है, जैसे कि घट आदि पदार्थ अपने आपको ग्रहण नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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