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________________ आत्माप्रत्यक्षत्ववादः एतेन 'आत्माऽप्रत्यक्षः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात्करणज्ञानवत्' इत्याचक्षाणः प्रभाकरोपि प्रत्याख्यातः । प्रमितेः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वेपि प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात् । तस्याः क्रियात्वेन प्रतिभासनात्प्रत्यक्षत्वे कररणज्ञान - श्रात्मनोः करणत्वेन कर्तृत्वेन च प्रतिभासनात्प्रत्यक्षत्वमस्तु । न चाभ्यां तस्याः सर्वथा भेदोऽभेदो वा-मतान्तरानुषङ्गात् । कथञ्चिदभेदे - सिद्ध तयोः कथञ्चित्प्रत्यक्षत्वम्; प्रत्यक्षाद यहां तक मीमांसक के एकभेद भाट्ट के ज्ञानपरोक्षवाद का खंडन किया, और ज्ञान स्वसंवेद्य है यह स्थापित किया, अब उन्हीं मीमांसकों का दूसरा भेद जो प्रभाकर है उसका श्रात्मअप्रत्यक्षवाद अर्थात् आत्मा को परोक्ष मानने का जो मंतव्य है उसका निराकरण ग्रन्थकार करते हैं- प्रभाकर का अनुमान वाक्य है कि "आत्मा अप्रत्यक्षः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात् करणज्ञानवत्" ग्रात्मा प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि वह कर्मपने से प्रतीत नहीं होता, जैसा कि करणज्ञान कर्मरूपपने से प्रतीत नहीं होता अतः वह परोक्ष है । इस प्रकार का प्रभाकर का यह कथन भी करणज्ञान में स्वसंविदितत्व के समर्थन से खंडित हो जाता है । क्योंकि प्रभाकर ने प्रमिति को कर्मपने से प्रतीत नहीं होने पर भी प्रत्यक्ष होना स्वीकार किया है । प्रभाकर प्रमिति क्रियारूप से प्रतीत होती है, अतः उसको हमने प्रत्यक्षरूप होना स्वीकार किया है । जैन - तो फिर करणज्ञान और आत्मा में भी करणरूप और कर्तृत्वरूप से उनकी प्रतीति होने से प्रत्यक्षता स्वीकार करना चाहिये, जैसे प्रमिति का कर्मरूप से प्रतिभास नहीं होने पर भी उसमें प्रत्यक्षता मानी गई है उसी प्रकार कर्मरूप से प्रतीत नहीं होने पर भी प्रात्मा और ज्ञान में प्रत्यक्षता मानना चाहिये । आत्मा और ज्ञान मैं प्रत्यक्षता मानने में यह भी एक हेतु है कि आत्मा और ज्ञान से प्रमिति सर्वथा भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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