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________________ स्वसंवेदनज्ञानवादः इन्द्रियार्थसहकारिप्रगुणं मनो लिङ्गमित्यप्यपरीक्षिताभिधानम् ; तत्सद्भावासिधेः । युगपद् ज्ञानानुत्पत्तस्तत्सिद्धिः, तथा हि-यात्मनो मनसा तस्येन्द्रियै : सम्बन्धे ज्ञानमुत्पद्यते ! यदा चास्य चक्षुषा सम्बन्धो न तदा शेषेन्द्रिय रतिसूक्ष्मत्वात् ; इत्यप्यसङ्गतम् ; दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ युगपद् पादि ज्ञानपञ्चकोत्पत्तिप्रतीतेः अश्वविकल्पकाले गोनिश्चयाच्च तदसिद्धेः । न चात्र क्रमकान्तकल्पना-प्रत्यक्ष विरोधात् । किञ्च वंवादिना (किं) युगपत्प्रतीतं येनावयवावयव्या दिव्यवहार: स्यात् ? घटपटादिकमिति चेत् न; प्रत्रापि तथा कल्पनाप्रसङ्गात् । किञ्चातिसूक्ष्मस्यापि मनसो नयनादीनामन्यतमेन हो पायी है । आप लोग एक साथ ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होना रूप हेतु से मन की सिद्धि करते हो-किन्तु इस युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिरूप हेतु से मन सिद्ध नहीं होता है। मीमांसक हम तो ऐसा मानते हैं कि आत्मा का मन के साथ संबंध होता है, मन का इन्द्रियों के साथ संबंध होता है, तब जाकर ज्ञान उत्पन्न होता है, जब यह मन एक नेत्र के साथ संबंध करता है, तब शेष कर्ण आदि इन्द्रियों के साथ संबंध नहीं कर सकता, क्योंकि मन अति सूक्ष्म है, इस प्रकार एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होने से उससे मन की भी सिद्धि हो जाती है । जैन-यह कथन असंगत है, देखो-दीर्घशष्कुली-बड़ी तथा कड़ी कचौड़ी या पुड़ो खाते समय एक साथ रस रूप आदि पांचों ज्ञान उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। तथा अश्व का विकल्प करते समय-(घोड़े का निश्चय होते समय) गाय का दर्शन भी होता है, अश्व का विकल्प हो रहा है और उसी समय उसी पुरुष को गाय का निश्चय भी होता हुआ देखा जाता है, अत: एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं इत्यादि कथन असत्य ठहरता है, इस दीर्घशष्कुलीभक्षण आदि में रूप रस आदि का क्रम से ही ज्ञान होता है ऐसा एकान्त नहीं मान सकते, प्रत्यक्ष विरोध होता है, अर्थात् हम सबको दीर्घशष्कुली भक्षण आदि में एक साथ रूप आदि का ज्ञान होते हुए प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है । आप मीमांसक यदि इस प्रकार एक साथ ज्ञान होना स्वीकार नहीं करेंगे तो अवयव अवयवी आदि का व्यवहार किस प्रकार होगा, क्योंकि अवयवों का ज्ञान अवयवी के साथ नहीं होगा और अवयवी का ज्ञान भी अवयवों के साथ उत्पन्न नहीं होगा। मीमांसक-जैसे घट पट आदि का ज्ञान होता है वैसे अवयव अवयवी आदि का भी ज्ञान हो जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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