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________________ ३२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे किञ्च, इयं प्रत्यक्षता अर्थधर्मः, ज्ञानधर्मो वा ? न तावदर्थधर्मः, नोलतादिवत्तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविषयतया च प्रसिद्धिप्रसङ्गात् । न चैवम्, आत्मन्येवास्या ज्ञानकाले एव स्वासाधारणविषयतया च प्रसिद्धः। तथा च न प्रत्यक्षता अर्थधर्म: तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविषयतया चाऽप्रसिद्धत्वात् । यस्तु तद्धर्मः स तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविषयतया च प्रसिद्धो दृष्टः, यथा रूपादिः, तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविषयतया चाप्रसिद्धा चेयम् तस्मान्न तद्धर्मः । यस्यात्मनो ज्ञानेनार्थः प्रकटी क्रियते तद्ज्ञान काले तस्यैव सोऽर्थः मीमांसक-कर्तृत्व और करणत्व पर के लिये भी कर्मरूप बन नहीं सकते हैं अर्थात् हमारा ज्ञान या आत्मा हमारे खुदके द्वारा कर्मरूप से प्रतीति में नहीं पाता है तो वह दूसरे देवदत्त आदि के द्वारा भी कर्मरूप से प्रतीति में नहीं आयेगा । लेकिन ऐसा है नहीं, हम हमारे लिये कर्मरूप से प्रतीति में आते हैं । देखो-घट को ग्रहण करने वाले ज्ञानसे युक्त अपनी आत्मा को स्वयं मैं खुद अनुभव कर रहा हूं. इस प्रकार अनुभव सिद्ध बात है कि स्व की प्रतीति में स्वयं ही कर्मरूप हो जाता है, इसलिये जैसे पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं वैसे ज्ञान भी प्रत्यक्ष होता है ऐसा मानना चाहिये, यदि ज्ञान में प्रत्यक्षता नहीं मानते हैं तो पदार्थों में प्रत्यक्षता की प्रतीति का अपलाप हो जायेगा, क्योंकि प्रतीत हुए स्वभाव को एक जगह नहीं मानेंगे तो कहीं पर भी उस स्वभाव की सिद्धि नहीं होगी, फिर तो प्रतिनियत वस्तुस्वभाव का ही लोप हो जायेगा। भावार्थ-आत्मा और ज्ञान में कर्ता और करणरूप से प्रतीति पा रही है तो भी उनको परोक्ष माना जायगा तो घट आदि पदार्थ भी परोक्ष हो जावेंगे, क्योंकि प्रतीत होते हुए भी ज्ञानादि को परोक्ष मान लिया है, अत: पदार्थ भी परोक्ष हो जावेंगे। फिर प्रतिनियत पदार्थों के स्वभावों की व्यवस्था ही समाप्त हो जाने से यह घट कृष्ण वर्णवाला है, बड़ा है इत्यादि वस्तुओं का स्वभाव या धर्म प्रतीत होना शक्य नहीं रहेगा । अतः पदार्थों के समान ज्ञान भी प्रत्यक्ष होता है ऐसा मानना चाहिये ।। मीमांसक से हम यह पूछते हैं कि प्रत्यक्षता किसका धर्म है ? क्या वह घट पट आदि पदार्थों का धर्म है ? अथवा ज्ञान का धर्म है ? प्रत्यक्षता पदार्थों का धर्म तो हो नहीं सकती, यदि वह पदार्थ का धर्म होती तो उसी नील आदि धर्म के समान उसी पदार्थ के स्थान पर अन्य समय में भी वह प्रत्यक्षता प्रतीत होती, तथा वह नील पीत आदि पदार्थ जैसे ज्ञान काल से भिन्न समयों में भी प्रतीत होते हैं अनेक अनेक देवदत्त आदि पुरुष उन नीलादि पदार्थों को जानते हैं वैसे ही उस प्रत्यक्षता को भी जानने का प्रसंग प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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