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________________ स्वसंवेदनज्ञानवादः विरुद्धकर्मकररणाकाराभ्युपगमो युक्तोऽन्यत्र तथाऽदर्शनादित्याशङ्कय प्रमेयवत्प्रमातृप्रमाणप्रमितीनां प्रतीतिसिद्ध प्रत्यक्षत्वं प्रदर्शयन्नाह - महमात्मना वेति ॥ ८ ॥ कर्मवत्कर्तृ ' करणक्रियाप्रतीतेः ॥ ९ ॥ न हि कर्मत्वं प्रत्यक्षतां प्रत्यङ्गमात्मनोऽप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् तद्वत्तस्यापि कर्मत्वेनाप्रतीतेः । अर्थात् पदार्थ प्रत्यक्ष हुआ करते हैं वैसे ही प्रमाता - आत्मा, प्रमाण अर्थात् ज्ञान तथा प्रमिति - फल ये सबके सब ही प्रत्यक्ष होते हैं - सूत्र - घटमहमात्मना वेद्मीति ॥ ८ ॥ Jain Education International ३२३ कर्मवत् कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥ ६ ॥ सूत्रार्थ - मैं घट को अपने द्वारा (ज्ञान के द्वारा ) जानता हूं | जैसे कि घट पदार्थ का प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही कर्त्ता - श्रात्मा, करण- ज्ञान और जानना रूप क्रियाइन तीनों का भी प्रत्यक्ष होता है, देखिये -जो कर्मरूप होता है वही प्रत्यक्ष होता है ऐसा नियम नहीं है- अर्थात् प्रत्यक्षता का कारण कर्मपना हो सो बात नहीं है, यदि ऐसा नियम किया जाय कि जो कर्मरूप है वही प्रत्यक्ष है तो आत्मा के भी अप्रत्यक्ष हो जाने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि करणभूत ज्ञान जैसे कर्मरूप नहीं है वैसे आत्मा भी कर्मरूप से प्रतीत नहीं होता है । मीमांसक कहे कि आत्मा कर्मपने से प्रतीत नहीं होता है किन्तु कर्तृत्वरूप से प्रतीत होता है अतः वह प्रत्यक्ष है तो फिर ज्ञान भी करणरूप से प्रत्यक्ष होवे, कोई विशेषता नहीं है । अर्थात् ज्ञान और आत्मा दोनों ही कर्मरूप से प्रतीत नहीं होते हैं । फिर भी यदि आत्मा का प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हो तो ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानना होगा । मीमांसक - करणरूप से प्रतीत हुआ ज्ञान करण ही रहेगा वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा । जैन - यह बात तो कर्त्ता में भी लागू होगी - अर्थात् कर्तृत्वरूप से प्रतीत हुई आत्मा कर्ता ही कहलावेगी यह प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगी, इस प्रकार आत्मा के विषय में भी मानना पड़ेगा । दूसरी बात यह है कि मीमांसक आत्मा को प्रत्यक्ष होना मानते हैं फिर ज्ञान को ही परोक्ष क्यों बतलाते हैं । यह भी एक बड़ी विचित्र बात है ? क्योंकि स्वयं आत्मा ही अपने स्वरूप का ग्राहक होता है वैसे ही वह बाह्य पदार्थों का भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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