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________________ शून्याद्वैतवादः २५६ शून्यता वास्तवस्य तत्सद्भावावेदकप्रमाणस्य सद्भावात् ? द्वितीय पक्षे तु कथं तस्या: सिद्धिः प्रमेय सिद्ध: प्रमाणसिद्धिनिबन्धनत्वात् ? तदेवं सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वात् प्रतीतिसिद्धमर्थव्यवसायात्मकत्वं ज्ञानस्याभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथाऽप्रामाणिकत्वप्रसङ्गः स्यात् । अथेदानी प्राक् प्रतिज्ञातं स्वव्यवसायात्मकत्वं ज्ञान विशेषणं व्याचिख्यासुः स्वोन्मुखतयेत्याद्याह स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥ ६ ॥ स्वस्य विज्ञानस्वरूपस्योन्मुखतोल्लेखिता तया इतीत्थंभावे भा। प्रतिभासनं संवेदनमनुभवनं स्वस्य प्रमाणत्वेनाभिप्रेतविज्ञानस्वरूपस्य सम्बन्धी व्यवसायः । स्त्रव्यवसायसमर्थनार्थमर्थव्यवसायं स्वपरप्रसिद्धम् 'अर्थस्य' इत्यादिना दृष्टान्तीकरोति । अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥ ७ ॥ भी यदि प्रमाण-ज्ञान में प्रतीतिसिद्ध अर्थ की व्यवसायात्मकता नहीं मानी जाय तो अप्रामाणिकता का प्रसंग प्राप्त होता है । अब माणिक्यनंदी आचार्य पहिले कहे ज्ञान के स्वव्यवसायात्मक विशेषण का व्याख्यान करते हुए कहते हैं सूत्र- स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥ ६॥ अर्थ-अपने आपकी तरफ संमुख होने से जो प्रतिभास होता है वही स्वव्यवसाय कहलाता है, "स्वोन्मुखतया" ऐसी यह तृतीया विभक्ति है, सो यह "ज्ञान को अपनी तरफ झुकने से अर्थात् अपने स्वरूप की तरफ संमुख होने से" इस प्रकारके अर्थ में प्रयुक्त हुई है। प्रतिभासन का अर्थ संवेदन या अनुभवन है । प्रमाण रूप से स्वीकार किया गया जो ज्ञान है उसके द्वारा अपना-व्यवसाय निश्चय करना यह ज्ञान का अपना निश्चय करना कहलाता है। अब ग्रन्थकार इस स्वव्यवसाय विशेषण का समर्थन प्रतिवादी तथा वादी के द्वारा मान्य अर्थ व्यवसायरूप दृष्टान्त के द्वारा करते हैं। सूत्र-अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥ ७ ॥ सूत्रार्थ-जिस प्रकार पदार्थ की तरफ झुकने से संमुख होने से पदार्थ का निश्चय होता है अर्थात् ज्ञान होता है, उसी प्रकार अपनी तरफ संमुख होने से ज्ञानको अपना व्यवसाय होता है । सूत्र में "इव" शब्द यथा शब्द के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। मतलब-जैसे घट आदि वस्तु का उसकी तरफ उन्मुख होने पर ज्ञान के द्वारा व्यवसाय होता है वैसे ही ज्ञानको अपनी तरफ उन्मुख होने पर अपना निज का व्यवसाय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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