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________________ २५२ प्रमेयकमलमार्तण्डे समो हेतुः; तथाहि-यदुक्तं भवति-'बुद्ध रभिन्ना नीलादयस्ततोऽभिन्नत्वात्' तदेवोक्त भवति 'अशक्य विवेचनत्वात्' इति । द्वितीयपक्षेप्यनै कान्तिको हेतुः; सचराचरस्य जगत: सुगत ज्ञानेन सहोत्पन्नस्य बुध्यन्तरपरिहारेण तज्ज्ञानस्यैव ग्राह्यस्य तेन सहै कत्वाभावात् । एकत्वे वा संसारी सुगतः संसारिणो वा सर्वे सुगता भवेयुः, संसारेतररूपता चैकस्य ब्रह्मवादं समर्थयते । अथ सुगतसत्ताकालेऽन्यस्योत्पत्तिरेव नेष्यते तत्कथमयं दोष: ? नन्वेवं प्रमाणभूताय" [ प्रमाणसमु० १।१] इत्यादिना केनासौ स्तूयते ? कथं चापराधीनोऽसौ येनोच्यते पीत आदि का दूसरी बुद्धि से अनुभव नहीं होकर उसी विवक्षित एक बुद्धि के द्वारा अनुभव होता है इसलिये, या भेदकरके उनके विवेचन होने का अभाव है इसलिये उन प्राकारों का विवेचन करना अशक्य है ? और अन्य प्रकार से तो अशक्य विवेचनता वहां हो नहीं सकती है, यदि प्रथम पक्ष की अपेक्षा वहां अशक्य विवेचनता मानी जावे तो हेतु साध्यसम हो जाता है, अर्थात्-नीलादिक बुद्धि से अभिन्न हैं क्योंकि वे उससे अभिन्न हैं, इस तरह जो साध्य है वही हेतु हो गया है, अत: साध्य प्रसिद्ध होता है तो हेतु भी साध्यसम-प्रसिद्ध हो गया, साध्य यहां बुद्धि से अभिन्नपना है और उसे ही हेतु बनाया है सो ऐसा हेतु साध्य का साधक नहीं होता है । द्वितीय पक्ष की अपेक्षा लेकर वहां अशक्य विवेचनता मानी जावे तो हेतु में अनैकान्तिकता आती है, अर्थात् अशक्य विवेचन रूप हेतु का अर्थ आपने इस तरह किया है कि बुद्धि के साथ उत्पन्न हए नीलादि पदार्थ अन्य बुद्धि से ग्रहण न होकर उसी एक विवक्षित बुद्धि के द्वारा अनुभव में पाते हैं सो यही अशक्य विवेचनता है-सो इस प्रकार की व्याख्यावाला यह अशक्य विवेचनरूप हेतु इस प्रकार से अनेकान्तिक होता है कि यह सारा जगत् सुगतज्ञान के साथ उत्पन्न हुआ है और अन्य बुद्धि का परिहार करके उसी सुगत की बुद्धि के द्वारा वह ग्राह्य भी है किन्तु वह सुगत के साथ एकरूप नहीं है, इसलिये जो बुद्धि में प्रतिभासित है वह उससे अभिन्न है ऐसा हेतु अनैकान्तिक होता है । तथायदि सुगत के साथ जगत् का एकपना मानोगे तो सुगत संसारी बन जायगा, अथवा सारे संसारी जीव सुगतरूप हो जावेंगे । संसार और उसका विपक्षी असंसार उन्हें एकरूप मानना तो सुगत को ब्रह्मस्वरूप स्वीकार करना है, पर यह तो ब्रह्मवाद का समर्थन करना हुआ ? शंका-सुगत के सत्ताकाल में अन्य कोई उत्पन्न ही नहीं होता है अतः सुगत को संसारी होने' आदि का दोष कैसे आ सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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