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________________ २३२ प्रमेयकमलमार्तण्डे यच्चान्यदुक्तम्-न भिन्नकालोऽसौ तद्ग्राहक इत्यादि, तदप्यसारम् ; क्षणिकत्वानभ्युपगमात् । यो हि क्षणिकत्वं मन्यते तस्यायं दोषः 'बोधकालेऽर्थस्याभावादर्थकाले च बोधस्यासत्त्वे तयोटिग्राह्यकभावानुपपत्तिः' इति । यच्चाविद्यमानार्थस्य ग्रहणे प्राणिमात्रस्याशेषज्ञत्वप्रसक्तिरित्युक्तम् ; तदप्ययुक्तम् ; भिन्नकालस्य समकालस्य वा योग्यस्यैवार्थस्य ग्रहणात् । दृश्यते हि पूर्वोत्तरचरादिलिङ्गप्रभवप्रत्ययाद्भिन्नकालस्यापि प्रतिनियतस्यैव शकटोदयाद्यर्थस्य ग्रहणम् । प्रत्यय अर्थ के समकालीन होकर अर्थ-नीलादि पदार्थ-को जानता है या भिन्न कालीन होकर उन्हें जानता है, सो इन दोनों प्रकार के विकल्पों में जो आपने दोषोद्भावन बड़े जोश के साथ किया है, सो वह सर्वथा असार है, क्योंकि हम ज्ञान और पदार्थ को क्षणिक नहीं मानते हैं, जो क्षणिक मानते हैं, उन्हीं पर ये दोष आते हैं । अर्थात् प्राप बौद्ध जब ज्ञान और पदार्थ दोनों को क्षणिक मानते हो सो ज्ञान क्षणिक होने से पदार्थ के समय रहता नहीं है और पदार्थ भी क्षणिक है सो वह भी ज्ञान के समय नष्ट हो जाता है अत: आपके यहां इनमें ग्राह्यग्राहकपना सिद्ध नहीं होता है । तथा अापने जो यह मजेदार दूषण दिया है कि भिन्नकालवर्ती ज्ञान यदि अर्थ का ग्राहक होगा अर्थात् अपने समय में अविद्यमान वस्तु का ग्राहक होगा-उसे जानेगा-तो सभी प्राणी सर्वज्ञ बन जायेंगे इत्यादि सो यह भी प्रयुक्त है क्योंकि पदार्थ चाहे ज्ञान के समकालीन हो चाहे भिन्नकालीन हो ज्ञान तो (क्षयोपशम के अनुसार ) अपने योग्य पदार्थों को ही ग्रहण करता है। देखो-पूर्वचर हेतु, उत्तरचर हेतु आदि हेतुवाले अनुमान ज्ञान भिन्नकालीन वस्तुओं को ग्रहण करते हैं तथा अपने योग्य शकटोदय आदि को ही ग्रहण करते हैं। विशेषार्थ - 'उदेष्यति शकटं कृतकोदयात्"-एक मुहूर्त के बाद रोहिणी का उदय होगा क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है-यह पूर्वचर हेतुवाला अनुमान है, इस ज्ञान का विषय जो शकट है वह तो वर्तमान ज्ञान के समय में है नहीं तो भी उसे अनुमान ज्ञान ने ग्रहण किया है, तथा "उद्गात् भरणी प्राग् तत एव"-एक मुहूर्त पहिले भरणी नक्षत्र का उदय हो चुका है, क्योंकि कृतिका का उदय हो रहा है-सो इस ज्ञान में भी भरणी का उदय होना वर्तमान नहीं होते हुए भी जाना गया है, इसी प्रकार और भी बहुत से ज्ञान ऐसे होते हैं कि उनका विषय वर्तमान में नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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