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________________ २२. प्रमेयकमलमार्तण्डे श्लो० १ ] इत्यादिनासौ समर्थितः, स्तुतश्चाद्वैतादिप्रकरणानामादौ दिग्नागादिभिः सद्भिः । न खलु तेषामसति सत्त्वकल्पने बुद्धिः प्रवर्तते । विचार्य पुनस्त्यागाददोष इत्यप्यसारम् ; त्यागाङ्गत्वे हि तस्य वरं पूर्वमेव नाङ्गीकरणमीश्वरादिवत् । अद्वैतमेव तथा स्तूयते इत्यपि वार्तम् ; तत्र स्तोतव्यस्तोतृस्तुतितत्फलानामत्यन्तासम्भवात् । किञ्च, सहोपलम्भः किं युगपदुपलम्भः, क्रमेणोपलम्भाभावो वा स्यात्, एकोपलम्भो वा ? प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः; 'सहशिष्येणागतः' इत्यादौ यौगपद्यार्थस्य सहशब्दस्य भेदे सत्येवोपलम्भात् । शंका-सुगत या बाह्यपदार्थों का प्रथम विचार करते हैं और फिर उन्हें असत् जानकर छोड़ देते हैं, इसलिये कोई दोष की बात नहीं है। समाधान-यह बात गलत है, क्योंकि यदि इन वस्तुओं को छोड़ना ही है तो प्रथम ही उनका ग्रहण नहीं करना ही श्रेयस्कर होता, जैसे ईश्वरादिक को आपने पहिले से ही नहीं माना है। शंका-हम लोग अद्वैत को ही सुगत आदि नाम देकर स्तुत्य मानते हैं और स्तुति करते हैं। समाधान-यह कैसी विचित्र बात है। एक विज्ञानमात्र तत्वमें स्तुति करने योग्य सुगत, स्तुति करने वाले दिग्नाग आदि ग्रन्थकर्ता स्तुतिरूप वाक्य और उसका फल इत्यादि भेद किस प्रकार संभव हो सकता है अर्थात् इन भेदों का अभेदवाद में सर्वथा अभाव-अत्यंत प्रभाव ही है । किश्च-अद्वैत को सिद्ध करने के लिये दिया गया जो सहोपलम्भ हेतु है उसका अब विचार किया जाता है-सहोपलम्भ शब्द का अर्थ क्या है- क्या युगपद् उपलब्ध होना, या क्रम से उपलब्धि का अभाव होना, अथवा एक का उपलब्ध होना सहोपलम्भ है ? प्रथम पक्ष के स्वीकार करने पर हेतु विरुद्ध होगा, क्योंकि विपरीत-भेद के साथ हेतु रह जाता है, जैसे-वह शिष्य के साथ आया-इत्यादि वाक्यों में सह शब्द का अर्थ युगपत् है और वह भेद का ही द्योतक है, न कि अभेद का, तथा अभेद में एक साथपना बनेगा भी कैसे, एक गुरु के आने पर "एक साथ आ गये” ऐसा तो कहा नहीं जाता है, इसलिये सहोपलम्भ का अर्थ युगपत् प्राप्त होना बनता नहीं। दूसरा पक्ष स्वीकार करो तो हेतु प्रसिद्ध दोष युक्त होगा, अर्थात् क्रम से उपलब्धि का प्रभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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