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________________ ब्रह्माहतवादः २०५ ननु बाधकेन ज्ञानमपहियते, विषयो वा, फलं वा ? न तावद् ज्ञानस्यापहारो युक्तः; तस्य प्रतिभातत्वात् । नापि विषयस्य ; अत एव । विषयापहारश्च राज्ञां धर्मो न ज्ञानानाम् । फलस्यापि स्नानपानावगाहनादेः प्रतिभातत्वान्नापहारः । बाधकमपि ज्ञानम्, अर्थो वा ? ज्ञानं चेत् तत्कि समान चित् स्थाणु आदि में पुरुषज्ञान बाधित होने से असत्य है तो स्वयं अपने में होने वाला पुरुषत्व का ज्ञान असत्य कहलावेगा । इसलिये निष्कर्ष यह निकला कि जाग्रत अवस्था हो चाहे निद्रित अवस्था हो जिसमें बाधा आती है वह ज्ञान या वस्तु असत्यरूप कहलावेगी तथा जिसमें बाधा उपस्थित नहीं होती है वह वस्तु वास्तविक हो होगी ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिये । भावार्थ-ब्रह्मवादी का कहना है कि स्वप्न में देखे गये पदार्थ के समान ही ये प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले पदार्थ काल्पनिक हैं किन्तु यह उनका कहना सर्वथा गलत है, निद्रित अवस्था में देखे गये पदार्थ अर्थक्रिया रहित होते हैं, अत: बाधित होने से वे असत्य माने जाते हैं, किन्तु जाग्रत अवस्था में दिखाई देने वाले पदार्थ ऐसे नहीं होते हैं-उनसे अर्थक्रिया भी होती है अर्थात् जाग्रत अवस्था में जल रहता है उससे पिपासा शांत होती है अत: वह जल वास्तविक ही है, इसलिये वस्तुओं को हम अनेक भेद रूप मानते हैं। अब आगे कोई परवादी अपना लंबा चौड़ा पक्ष रखता है-कहता है कि जैन ने जो ऐसा कहा है कि जहांपर बाधा आती है उसे सत्य नहीं मानना चाहिये और जहां पर बाधा नहीं आती है उसे सत्य ही मानना चाहिये –सो इस पर प्रश्न होता है कि बाधक प्रमाण के द्वारा किस वस्तु को बाधित किया जाता है-ज्ञान को या विषय को या कि फल को ? अर्थात् प्रथम जो वस्तु का प्रतिभास हुआ है उसमें दूसरे ज्ञान से बाधा आई सो उस द्वितीयज्ञान ने प्रथमज्ञान को असत्य ठहराया या उसके द्वारा जाने गये पदार्थ को अथवा उस ज्ञान के फल को ? प्रथमज्ञानको दूसरे बाधकज्ञान ने बाधित किया सो ऐसा कह नहीं सकते क्योंकि वह तो प्रतिभासित हो चुका अब उसमें बाधा देना ही व्यर्थ है । उस प्रथम ज्ञान के विषय को बाधित करना भी शक्य नहीं है क्योंकि वह भी ज्ञान में झलक ही चुका है । एक बात यह भी है कि विषय अर्थात् पदार्थ में बाधा देना-उस का अपहार करना ये तो काम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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