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________________ ब्रह्माद्वैतवादः १६१ भासप्रसङ्गः । तथा किमेकव्यक्तिग्रहणद्वारेण तत्प्रतीयते, सकलव्यक्तिग्रहणद्वारेण वा ? प्रथमपक्षे विरोधः, एकाकारता ह्यनेकव्यक्तिगतमेकं रूपम्, तच्चैकस्मिन् व्यक्तिस्वरूपे प्रतिभातेऽप्यनेकव्यक्त्यनुयायितया कथं प्रतिभासेत ? अथ सकलव्यक्तिप्रतिपत्तिद्वारेण तत्प्रतीयते तदा तस्याऽप्रतिपत्तिरेवाखिलव्यक्तीनां ग्रहणासम्भवात् । भेदसिद्धिप्रसङ्गश्व - प्रखिलव्यक्तीनां विशेषरणतया एकत्वस्य च विशेयत्वेन एकत्वस्य वा विशेषणतया तासां च विशेष्यत्वेन प्रतिभासनात् । तथा तद्व्यक्तिभ्यस्तद्भिन्नम्, प्रभिन्नं वा ? यद्यभिन्नम् ; तर्हि व्यक्तिरूपतानुषङ्गोऽस्य । न च व्यक्तिर्व्यक्त्यन्तरमन्वेतीति कथं सकलव्यक्त्यनुयायित्वमेकत्वस्य । अथार्थान्तरम् कथं नानात्वाऽप्रसद्धिः ? यथा चानुगतप्रत्ययजनकत्वेनैकत्वं व्यक्तिषु कल्प्यते तथा व्यावृत्तप्रत्ययजनकत्वेनानेकत्वमप्यविशेषात् । तन्नैकत्वं नानात्वमन्तरेप्रतीति होने लग जायगी, क्योंकि आधार को जानना जरूरी नहीं है, तथा वह सत्तासामान्यभूत एकत्व एक व्यक्ति के ग्रहण से प्रतीत होता है ? या समस्त व्यक्तियों के ग्रहण करने से प्रतीत होता है ? पहिले पक्ष में विरोध प्राता है, एकाकारता उसे कहते हैं कि अनेक व्यक्तियों में पायी जानेवालो समानता अर्थात् अनेक व्यक्तियों मेंविशेषों में जो सदृशता है उसीका नाम एकाकारता है वह यदि एक व्यक्ति के प्रतिभासित होने से प्रतीति में आती है तो उसमें अनेक व्यक्तियों का अनुयायीपना कैसे मालूम होगा अर्थात् नहीं मालूम होगा । सारे व्यक्तियों के ग्रहण होने पर उनका सत्तासामान्यरूप एकत्व जाना जाता है, ऐसा कहो तो उस एकत्व का ज्ञान ही नहीं होगा, क्योंकि अखिल व्यक्तियों का ग्रहण होना असम्भव है । इस प्रकार मानने से भेद का प्रसङ्ग भी आता है - देखिये - अखिल व्यक्तियां विशेषणरूप से और एकत्व विशेष्यरूप से प्रतीत होगा, अथवा - एकत्व विशेषणरूप और सम्पूर्ण व्यक्तियां विशेष्यरूप प्रतीत हुए । यही तो विशेष्य और विशेषणरूप दो भेद हो गये, तथा - यह सत्तासामान्यरूप एकत्व व्यक्तियों से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि अभिन्न है तो सत्तासामान्यरूप एकत्व व्यक्तिरूप हो ही गया, अब देखो ऐसा होने पर और क्या होता हैसामान्यभूत एकत्व जो कि एक संख्यारूप है वह जब एक व्यक्ति में चला गया तब अन्य अनेक व्यक्तियों में सामान्य कहां से आवेगा, व्यक्ति तो दूसरे व्यक्ति में जाता नहीं, फिर समस्त व्यक्तियों का अनुयायी एकत्व होता है यह बात कैसे हो सकती है, अर्थात् नहीं हो सकती । यदि कहो कि व्यक्तियों से सत्तासामान्यरूप एकत्व भिन्न है तो उसमें नानापना कैसे सिद्ध नहीं होगा - प्रवश्य सिद्ध होगा । तथा एक बात और यह है कि जैसे अनुगत प्रत्ययों को करनेवाला एकत्व व्यक्तियों में घटित करते हैं वैसे ही व्यावृत्तप्रत्यय को करने वाला अनेकत्व भी उन्हीं नानाव्यक्तियों में मानने में क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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