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________________ पूर्वार्थत्वविचारः भावी बाधाविरहः सत्यत्वेन ज्ञायते ; तर्हि संवादस्याप्यपरसंवादात्सत्यत्वसिद्धिस्तस्याप्यपरसंवादादित्यनवस्था । किञ्च क्वचित्कदाचित्कस्यचिद् बाधाविरहो विज्ञानप्रमाणता हेतु:, सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य वा ? प्रथमपक्षे कस्यचिन्मिथ्याज्ञानस्यापि प्रमाणताप्रसङ्गः, क्वचित्कदाचित्कस्यचिद्बाधाविरहसद्भावात् । सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य बाधाविरहस्तु नासर्व विदां विषयः । प्रदुष्टकारणारब्धत्वमप्यज्ञातम्, ज्ञातं वा तद्धेतुः ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः ; अज्ञातस्य सत्त्व १७५ भाट्ट - उस ज्ञान का ग्रहण करता है, अतः वह सत्य जैन - ऐसा मानने से अन्योन्याश्रय दोष आता है अर्थात् उस पूर्वज्ञान में बाधारहितपने को लेकर सत्य विषय की सिद्धि होगी और विषय की सत्यता को लेकर बाधारहितपना ज्ञान में सिद्ध होगा, इस प्रकार इन ज्ञानों की सिद्धि परस्पर अवलंबित होने से एक की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी । विषय सत्य है- अर्थात् वह पूर्वज्ञानं सत्य वस्तु को कहलाता है | भाट्ट - अन्योन्याश्रय दोष नहीं आवेगा, क्योंकि उस पूर्वज्ञान की सत्यता तो दूसरे बाधकाभाववाले प्रमाण के द्वारा जानी जाती है । Jain Education International जैन - ऐसा कहोगे तो अनवस्था दोष आवेगा - अर्थात् पूर्वज्ञान में बाधकाभाववाले ज्ञान से सत्यता आई और उस बाधकाभाववाले ज्ञान में सत्यता अन्य तीसरे बाधकाभाववाले ज्ञान से आई, इस प्रकार ऊपर ऊपर बाधा के प्रभावको सत्यता के लिये ऊपर ऊपर बाधकाभाव वाले ज्ञानों की उपस्थिति होते रहने से कहीं पर भी बाधकाभाव की स्थिति स्वयं सिद्ध नहीं हो सकने से अनवस्था पसर जावेगी | भाट्ट – पूर्वकाल भावी ज्ञान के बाद जो बाधकपने का उसमें अभाव होता है उसकी सत्यता तो संवादकप्रमाण से ग्रहण हो जावेगी । जैन — इस तरह से भी अनवस्थादूषण से प्राप छूट नहीं सकते, क्योंकि उस संवादक की सत्यता दूसरे संवादकज्ञान से और दूसरे संवादक की सत्यता तीसरे संवादकज्ञान से - इस प्रकार की कल्पना करते रहने से अनवस्था दोष तो अवस्थित ही रहेगा । अच्छा, यह तो बताओ कि किसी एक स्थान पर किसी समय किसी एक व्यक्ति को ज्ञान में बाधारहितपना उस ज्ञान की प्रमाणता में हेतु होता है, कि सभी स्थान पर हमेशा सभी पुरुषों को बाधारहितपना उसी विवक्षित प्रमाण की प्रमाणता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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