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________________ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे स्वरूपेणाकारविशेषरूपतया वानवगतोऽखिलोप्यपूर्वार्थः । दृष्टोप समारोपात्तादृक् ।। ५ ।। न केवलमप्रतिपन्न एवापूर्वार्थः, अपि तु दृष्टोऽपि प्रतिपन्नोपि समारोपात् संशयादिसद्भावात् तादृगपूर्वार्थोऽधीतानभ्यस्तशास्त्रवत् । एवंविधार्थस्य यन्निश्चयात्मकं विज्ञानं तत्सकलं प्रमारणम् । १६८ तन्न अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वमेव प्रमारणस्य लक्षणम् । तद्धि वस्तुन्यधिगतेऽनधिगते वाऽव्यभिचारादिविशिष्टां प्रमां जनयन्नोपालम्भविषयः । न चाधिगतेऽर्थे किं कुर्वत्तत्प्रमाणतां प्राप्नोतीति वक्तव्यम् ? विशिष्टप्रमां जनयतस्तस्य प्रमाणताप्रतिपादनात् । यत्र तु सा नास्ति तन्न प्रमारणम् । इस सूत्र द्वारा स्पष्ट की गई है, स्वरूप से अथवा विशेषरूप से जो निश्चित नहीं है वह अखिल पदार्थ अपूर्वार्थ है । दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥ ५ ॥ देखे जाने हुए पदार्थ में भी यदि समारोप प्रा जाता है तो वह पदार्थ भी अपूर्वार्थ बन जाता है । जैसा कि पढ़ा हुआ भी शास्त्र अभ्यास न करने से नहीं पढ़ा हुआ जैसा हो जाता है, ऐसे अपूर्वार्थ का निश्चय करानेवाले सभी ज्ञान प्रमारण कहे गये हैं । इसलिये प्रभाकर की " अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वमेव प्रमाणं" यह प्रमाण विषयक मान्यता गलत है, वस्तु चाहे जानी हुई हो चाहे नहीं जानी हुई हो उसमें यदि ज्ञान अव्यभिचार रूप से विशेष प्रमा को उत्पन्न करता है तो वह ज्ञान प्रमारण ही माना जायगा । शंका- जाने हुए विषय में यह क्या प्रमाणता लायेगा ? समाधान — ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि उसमें विशिष्ट अंश का ग्रहण करके वह विशेषता लाता है, अतः उसमें प्रमाणता आती है, हां, जहां ज्ञानके द्वारा कुछ भी विशेषरूप से जानना नहीं होता है वहां उसमें प्रमाणता नहीं होती । विशिष्ट ज्ञान को उत्पन्न करने पर भी जाने हुए विषय में प्रवृत्ति करने के कारण उस दूसरे प्रमाण को प्रकिञ्चित्कर नहीं मानना चाहिये, अन्यथा प्रतिप्रसङ्ग की आपत्ति श्राती है, अर्थात् विशिष्ट ज्ञानको उत्पन्न करने पर भी यदि उसे प्रमाण भूत नहीं माना जाता है तो सर्वथा नहीं जाने हुए पदार्थ में प्रवृत्त हुए ज्ञान में भी प्रकिञ्चित्करता-प्रमाणभूतता नहीं आनी चाहिये, श्रतः जिस प्रकार सर्वथा नहीं जाने हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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