SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्मृतिप्रमोषविचारः यदि च द्विचन्द्रादिवेदनं स्मरणम्, तीन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि न स्यात्, अन्यत्र स्मरणे तददृष्टेः। तदनुविधायि चेदम्, अन्यथा न किञ्चित्तदनुविधायि स्यात् । तद्विकारविकारित्वं चात एव दुर्लभं स्यात् । किञ्च, स्मृतिप्रमोषपक्षे बाधकप्रत्ययो न स्यात्, स हि पुरोवत्तिन्यर्थे तत्प्रतिभासस्यासद्विषयतामादर्शयन् 'नेदं रजतम्' इत्युल्लेखेन प्रवर्तते, न तु 'रजतप्रतिभासः स्मृतिः' इत्युल्लेखेन । स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमे च स्वतःप्रामाण्यव्याघातः, सम्यग्रजतप्रतिभासेऽपि ह्याशङ्कोत्पद्यते 'किमेष स्मृतावपि स्मृतिप्रमोषः, किं वा भिन्न दो वस्तुओंका अभेद से ग्रहण करने को अविवेक कहते हैं तब तो जैन की विपरीत ख्याति ही स्मृति प्रमोष कहलाया। संश्लेषको स्मृति प्रमोष इसलिये नहीं कहते कि ज्ञानोंमें संश्लेष होता नहीं संश्लेष तो मूर्त द्रव्योंमें पाया जाता है । अनन्तर अर्थात् प्रत्यक्षके बाद होना अविवेक है ऐसा कहो तो अनुमान आदि प्रागेके सभी ज्ञान स्मृतिप्रमोष बन जायेंगे, क्योंकि अनुमान आदि ज्ञान प्रत्यक्षादि पूर्व-पूर्व ज्ञानोंके प्रवृत्त होनेपर पैदा होते हैं। प्रत्यक्षसे अग्नि और धूमका संबंध जानकर फिर पर्वतादिमें धूमको देखकर अग्निका ज्ञान होता है अागमोक्त शब्दोंको श्रावण प्रत्यक्षसे ग्रहण कर आगमज्ञान पैदा होता है, इत्यादि, इसलिये प्रत्यक्षके बाद होना अविवेक है और उससे स्मृति प्रमोष होता है ऐसा मानना असत्य है। प्रभाकर की मान्यतानुसार यदि "यह रजत है" इस विपरीत ज्ञानको स्मरण रूप माना जाय तो एक चन्द्रमें तिमिर रोगीको जो द्वि चन्द्र का ज्ञान होता है वह स्मरण रूप हो जायगा, तथा जितने भी विपरीत ज्ञान हैं वे सब स्मरण रूप बन जायेंगे, जैसे मरीचिकामें जल का ज्ञान, रस्सीमें सर्पका प्रतिभास, आदि ज्ञान स्मृतिज्ञान कहलाने लगेंगे, फिर इन द्वि चन्द्रादि ज्ञानोंका इन्द्रियोंके साथ अन्वय व्यतिरेक नहीं बनेगा, किन्तु इन ज्ञानोंमें बराबर इन्द्रियोंके साथ अन्वय व्यतिरेक पाया जाता है अर्थात् यदि नेत्रेन्द्रिय है तो ये द्वि चन्द्रादि ज्ञान होते हैं और नेत्र नहीं होते तो ये ज्ञान भी उत्पन्न नहीं होते हैं, इस प्रकार इनका इन्द्रियोंके साथ अन्वय व्यतिरेक देखा जाता है । स्मरणमें तो ऐसा अन्वयव्यतिरेक घटित नहीं होता है । द्वि चन्द्रादि ज्ञानों में इन्द्रियोंका अन्वय व्यतिरेक होते हुए भी नहीं मानों तो कोई भी ज्ञान इन्द्रियोंके साथ अन्वय व्यतिरेक वाला नहीं रहेगा, तथा इन्द्रियोंके विकृत हो जानेसे ज्ञानोंमें जो विकारता पायी जाती है वह भी नहीं रहेगी, क्योंकि ज्ञान इन्द्रियोंसे हुए ही नहीं हैं । दूसरी बात यह है कि यदि विपरीत ज्ञानको स्मृति प्रमोष रूप माना जाय तो उस ज्ञान में पीछेसे जो बाधा देने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है वह नहीं हो सकेगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy