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________________ [ १४ ] हिन्दी टीकाकी १०५ पूज्या विदुषीरत्न प्रायिका जिनमति माताजी-. हिन्दी भाषा प्रधान इस युगमें प्रायः सभी संस्कृत, प्राकृत भाषा ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद हुआ है तदनुसार पूज्या माताजीने प्रस्तुत ग्रन्थको अभी तक भाषान्तरित नहीं हुमा देखकर एवं न्याय विषयके विद्यार्थियों के लिये उपयोगी समझकर इसका अनुवाद किया है, आपका हम सभी पर महान उपकार है । विद्यार्थी तो आपकी इस कृतिसे लाभान्वित होंगे ही किन्तु स्वाध्याय प्रेमी भी अब इसका प्रास्वादन [ स्वाध्याय ] ले सकेंगे। माताजीने जिस शैली को अपनाया है वह अत्यंत सरल एवं सुबोध है । दुरूह ग्रन्थकी सरलभाषामें टीका अनुपलब्ध है, प्रथम तो न्यायके ग्रन्थोंमें जन साधारणको रुचि ही नहीं, दूसरे भाषाकी कठिनता “मघवा शब्द बिडौजा टीका" की कहावत चरितार्थ कर देती है। माताजीने इस ग्रन्थमें जितनी सरलता बरतनी चाहिये बरती है। कई स्थानोंपर बोल चाल के शब्द एवं प्रान्तीय शब्द मा गये हैं ये सब उनकी सरल एवं सरस प्रकृतिके द्योतक हैं। अनुवाद विषयक विवरण इस मूल ग्रन्थ में जो प्रकरण हैं उनको पृथक पृथक शीर्षक देकर विभाजित किया है, वादी प्रतिवादीके कथनको विभाजित किया है । प्रत्येक प्रकरणके प्रारंभमें तद तद मत संबंधी ग्रन्थका उद्धरण लेकर “पूर्वपक्ष" रखा है जिससे परवादीके मंतव्य का अच्छा परिचय हो जाता है। प्रत्येक प्रकरणके अन्तमें तत्तद् प्रकरण का “सारांश" दिया है जो विद्याथियोंको परीक्षामें प्रत्युपयोगी होगा। साहित्यिक ग्रन्थ, कथा परक ग्रन्थका अनुवाद सहजरूपसे किया जा सकता है किन्तु न्याय परक ग्रन्थों का अनुवाद सहज नहीं होता । यद्यपि टीकामें रूपान्तरकी मुख्यता है, अाधुनिक युगके अनुसार टीका ग्रन्थों जैसा निर्वाह नहीं मिलता किन्तु यह प्रयास श्रेष्ठ है, प्रथम प्रयास है। मेरी माताजीसे विनम्र प्रार्थना है कि अनुवाद तो संपूर्ण ग्रन्यका हो चुका ही है अतः शेष दो खण्डोंका मुद्रण भी शीघ्र हो जिससे अल्पज्ञोंको आपके ज्ञानका समुचित लाभ मिल सके। सि. भू० पंडित रतनचंद जैन मुख्तार को मैं बहुत बहुत धन्यवाद देता हूं जिन्होंने इस ग्रन्थको प्रकाशित करवाने में पूर्ण सहायता दी । पंडित मूलचंद जैन शास्त्री ( महावीरजी ) ने संशोधन कार्य को करके जिनवाणी की सेवा की अतः वे बहुत अधिक धन्यवादके पात्र हैं। गुलाबचन्द जैन प्राचार्य दिगंबर जैन संस्कृत कॉलेज, जयपुर [ राजस्थान ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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