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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे षेधात् क्रमयौगपद्याभ्यां तस्यार्थक्रियारोधात् । नापि स्वभावलिङ्गम् ; शब्दब्रह्माख्यधर्मिण एवासिद्ध ेः । न ह्यसिद्ध े धर्मिणि तत्स्वभावभूतो धर्मः स्वातन्त्र्येण सिद्धयेत् । यच्चोच्यते-‘ये यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मया यथा घटशरावोदञ्चनादयो मृद्विकारा मृदाकारानुगता मृन्मयत्वेन प्रसिद्धाः शब्दाकारानुस्यूताश्च सव भावा इति'; तदप्युक्तिमात्रम् ; शब्दाकारान्वितत्वस्यासिद्ध ेः । प्रत्यक्षेण हि नीलादिकं प्रतिपद्यमानोऽ-नाविष्टाभिलापमेव प्रतिपत्ता प्रतिपद्यते । कल्पितत्वा तथा-आपका जो ऐसा अनुमानिक कथन है कि - 'ये यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मया यथा घटशरावोदञ्चनादयो मृद्विकारा मृदाकारानुगता मृन्मयत्वेन प्रसिद्धाः, शब्दाकारानुस्यूताश्च सर्वे भावा इति" जो जिस आकार से अनुस्यूत रहते हैं वे तन्मय होते हैं - उसी स्वरूप होते हैं- जैसे मिट्टी के विकाररूप घट, सकोरा, उदंचन आदि मिट्टी के आकार के अनुगत होते हैं अतः वे तन्मय - मिट्टी रूप ही होते हैं । वैसे ही शब्दाकार से अनुगत सभी पदार्थ हैं अतः वे शब्दमय हैं । सो ऐसा यह अनुमानिक कथन भी सदोष है, क्योंकि यहां "शब्दाकारान्वित" हेतु प्रसिद्ध है - अर्थात् पदार्थ शब्दाकार से अन्वित हैं ऐसा कथन सिद्ध नहीं होता है, नीलादिक पदार्थ को जानने की इच्छा वाला व्यक्ति जब प्रत्यक्ष के द्वारा उन्हें जानता है तो वे शब्द रहित ही उसके द्वारा जाने जाते हैं - शब्द सहित नहीं । तथा पदार्थों में शब्दान्वितपना पदार्थों में है यह मान्यता केवल स्वकपोलकल्पित होने से भी प्रसिद्ध है, यह कल्पित इसलिये है कि पदार्थों का स्वरूप शब्दों से अन्वित नहीं है, परन्तु फिर भी तुमने वे शब्दों से अन्वित हैं इस रूपसे उन्हें कल्पित किया है, इसलिये कल्पित इस शब्दान्वितत्वरूप हेतु के द्वारा शब्दब्रह्म कैसे सिद्ध हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता, तथा घटादिरूप जो दृष्टान्त दिया है वह भी साध्य और साधन से विकल है, क्योंकि उनमें सर्वथा एकमयत्व और एकान्वितत्व की प्रसिद्धि है, जितने भी पदार्थ हैं वे सब समान और असमान दोनों ही रूप से परिणत होनेके कारण परमार्थतः एक रूपता से ग्रन्वित नहीं हैं । तथा पदार्थ यदि शब्दमय ही होते तो घट इसप्रकार का शब्द सुनते ही उस व्यक्ति को संकेत के बिना ही घट का ग्रहण हो जाना चाहिये था और उसमें उसे संदेह भी नहीं रहना चाहिये था, क्योंकि शब्द के सुनने मात्र से ही नीलादि पदार्थ उसे प्रतीत ही हो जायेंगे, यदि वे उसके उच्चारण करने पर प्रतीत नहीं होते तो फिर दोनों में शब्द और अर्थ में तादात्म्य कहां रहा, तथा - एक बात यह भी होगी - कि मानने पर अग्नि शब्द सुनते ही कानों को जल जानेका और पाषाण शब्दमय पदार्थ शब्द सुनते ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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