SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ प्रमेयकमलमार्तण्डे शब्द करता है उसमें अव्यक्त शब्द रहते हैं और वह देरी तक चिल्लाता है वे शब्द क्रम से सुनाई भी नहीं देते, अत: उन शब्दों में एकत्व मानना होगा, किन्तु एकत्व किसी ने माना नहीं । सदृशता कौन सी है, विषय एक होना रूप या ज्ञान रूप ? विषय एक हो नहीं सकता, क्योंकि निर्विकल्प का विषय स्वलक्षण और विकल्प विषय सामान्य है अर्थात् दोनों का विषय एक नहीं ज्ञानपने की अपेक्षा एकता माने तो सारे ही नील पीतादि ज्ञान एक रूप मानो। अभिभव पक्ष भी बनता नहीं, क्या निर्विकल्प से विकल्प का अभिभव होता है या विकल्प से निर्विकल्प का। दोनों के द्वारा भी अभिभव हो नहीं सकता। अच्छा बौद्ध, यह बताओ कि निर्विकल्प और विकल्प में एकता है-यह कौन निर्णय करता है ? निर्विकल्प निर्णय रहित है वह क्या निर्णय करेगा ? विकल्प भी निर्विकल्प के विषय को नहीं जानने से निर्णय कर नहीं सकता। बिना जाने कैसा निर्णय हो ? इसलिए दोनों में एकता है इस बात को कोई भी जानने वाला न होनेसे उसका अभाव ही है अर्थात् "निर्विकल्प का अभाव सिद्ध होता है क्योंकि वह प्रतीति में नहीं पाता है, विकल्प की प्रतीति आती है अतः वह प्रमाण है । बौद्ध कहते हैं कि निर्विकल्प के द्वारा विकल्प उत्पन्न होता है किन्तु यह बात घटित नहीं होती क्योंकि जो स्वत: विकल्प रहित है वह विकल्प को कैसे उत्पन्न करेगा ? जबरदस्ती मान भी लेंवे तो फिर उनको सभी विषयों में विकल्प उत्पन्न करने पडेंगे, किन्तु आपने तो केवल नीलादि विषय में ही उसे विकल्पोत्पादक माना है, क्षणादि विषय में नहीं। इस पर सौगत अपनी सुष्टु दलील पेश करते हैं कि जहां पर विकल्प वासना का प्रबोधक है वहीं पर वह निर्विकल्प दर्शन विकल्प को उत्पन्न करता है, किन्तु यह कोई बात में बात है ? विकल्प वासना तो नीलादि की तरह क्षण-क्षयादि में मौजूद है। तब झझलाकर वादी ने जवाब दिया कि क्षण-क्षयादि विषय में निर्विकल्प का अभ्यास नहीं, प्रकरण (प्रस्ताव) पाटव अथित्व ये भी नहीं। अत: उसमें कैसे विकल्प उत्पन्न करें ? इस पक्ष में विचार करने पर कोई सार नहीं निकलता है । अभ्यास नीलादि में तो है और क्षणादि में नहीं ऐसा सिद्ध नहीं होता । प्रकरण दोनों नील और क्षणादि का चल ही रहा है । पाटव नीलादि में क्यों हैं और क्षण में क्यों नहींयह आप सिद्ध नहीं कर पाते । इस प्रकार खंडित होने पर बौद्ध दूसरी प्रकार से कहते हैं- दर्शन को हमने अभ्यास आदि के होने अथवा न होने के कारण विकल्पोत्पादक नहीं माना अर्थात् विकल्प तो शब्द और अर्थ की वासना (संस्कार) के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy