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________________ १०४ प्रमेयकमलमार्तण्डे वासनाप्रभवत्वात्तस्य । तद्वासनाविकल्पस्यापि पूर्वतद्वासनाप्रभवत्वादित्यनादित्वाद्विकल्पसन्तानस्य प्रत्यक्षसन्तानादन्यत्वात्, विजातीयाद्विजातीयस्योदयानिष्टे!क्तदोषानुषङ्गः; इत्यप्यसङ्गतम् ; तस्य विकल्पाजनकत्वे ''यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्यप्रमाणता" [ ] इत्यस्य विरोधानुषङ्गात् । कथं वा वासनाविशेषप्रभवत्त(वात् ततोऽध्यक्षस्य रूपादिविषयत्वनियमः मनोराज्यादिविकल्पादपि तत्प्रसङ्गात् ? प्रत्यक्षसहकारिणो वासनाविशेषादुत्पन्नाद्रूपादिविकल्पात्तस्य तन्नियमे स्वलक्षणविषयत्वनियमोप्यत एवोच्यताम्, अन्यथा रूपादिविषयत्वनियमोप्यतो मा भूदविशेषात् । तथाच बौद्ध-हम दर्शन को विकल्प का उत्पादक मानते हैं सो वह दर्शन अभ्यासादि की अपेक्षा रखता है अथवा नहीं रखता है ऐसा नहीं मानते क्योंकि विकल्प तो शब्द तथा अर्थ की विकल्प वासना से उत्पन्न होता है, और वह विकल्प वासना अपनी पूर्व वासना से उत्पन्न होती है, इस प्रकार वे वासनाएं अनादि प्रवाह रूप हैं और वे प्रत्यक्ष की संतान से पृथक् रूप हैं । इसी कारण से विजातीय दर्शन से विजातीय रूप विकल्प होना माना नहीं। ऐसा मानना हमें भी अनिष्ट है। अतः पूर्वोक्त जैन के द्वारा दिये गये दोष हमारे पर नहीं आते हैं। जैन-यह कथन असंगत है, इस प्रकार यदि आप दर्शन को विकल्प पैदा करने वाला नहीं मानोगे तो अपसिद्धांत का प्रसंग आयेगा। "यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" अर्थात जहां ही यह दर्शन सविकल्प बुद्धि को पैदा करता है वहीं पर उसको प्रमाण माना है। यहां दर्शन को विकल्पोत्पादक माना ही है। दूसरी बात यह है कि विकल्प तो वासना विशेष से पैदा हुअा है फिर उससे प्रत्यक्ष के रूपादि विषय का प्रतिनियम कैसे बनेगा ? यदि बनना है तो मनोराज्यादि विकल्प के द्वारा भी प्रत्यक्ष के विषय का नियम बनना चाहिए। बौद्ध - प्रत्यक्षकी सहकारी ऐसी विशिष्ट वासना के कारण प्रति-नियत रूपादि में विकल्प पैदा होने का नियम बनता है । जैन-ठीक है फिर दर्शन को क्षण-क्षयादि विषय का नियम भी करना होगा नहीं करता है तो रूपादि में भी मत करे । कोई विशेषता तो है नहीं । फिर तो हम अनुमान प्रयोग करते हैं कि विकल्प स्वलक्षण को विषय करता है। (साध्य) प्रत्यक्ष के विषय में प्रतिनियम करनेवाला होने से (हेतु) जैसे कि रूपादि निर्विकल्प के विषय में प्रति नियम बनाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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