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________________ [१०] होनेसे सार्थक नाम परीक्षामुख है । प्रन्थ छह समुद्देशोंमें विभक्त है, प्रथममें १३ द्वितीयमें १२ तृतीयमें ६६ ( प्रत्यभिज्ञान के दृष्टांतों के पांचों भेदोंके पृथक पृथक सूत्र गिनने पर एवं तर्क ज्ञान प्ररूपक सूत्रको पृथक् गिनने पर १०१ सूत्र संख्या भी होती है ) चतुर्थ में पंचममें ३ और षष्ठमें ७४ सूत्र हैं, कुल मिलाकर २०० सूत्र हैं ( दूसरी अपेक्षा से २१२ हैं ) प्रमाणका स्वरूप, भेद और भेदोंका स्वरूप उनके उदाहरण चार समुद्देशोंमें कहा गया है एवं प्रमाणका विषय कहा गया है । पंचम समुद्दे शमें प्रमाणका फल बतलाकर षष्ठमें प्रमाणाभास, संख्याभास, विषयाभास और फलाभास का वर्णन किया है। भाषा और शैली भाषा परिमार्जित संस्कृत है । संस्कृत प्रौढ होकर भी सुबोध है, पाठकोंको अधिक बौद्धिक बल बिना लगाये समझमें प्राजातो है । शैलो सूत्र शैलो है । संक्षिप्त में सारको समझानेका जैसा सूत्रका कार्य होता है वैसा यहां भी है । सूत्रकार गागर में सागर भरने को शैलो अपनाते हैं, प्राचार्य माणिक्यनंदीने भी वही अपनाई है। टीकायें और टीकाकार परीक्षामुखकी टीका कहनेमें चार और वास्तव में तीन हैं सर्वप्रथम को टीका रचनामें प्रस्तुत अपना ग्रन्थ प्रमेय कमल मार्तण्ड है इसके टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य हैं । दूसरी टीका प्राचार्य अनंतवीर्य कृत प्रमेयरत्नमाला है । तीसरी टीका प्रमेयरत्नालंकार है जो भट्टारक चारुकीति द्वारा रचित है । चौथी टीका प्रमेय कण्ठिका है जो मात्र प्रथम सूत्रको विस्तृत व्याख्या है इसके निर्माता श्री शान्ति वर्णी हैं। प्रमेय कमल मार्तण्ड प्रस्तुत ग्रन्थ प्रमेय कमल मार्तण्ड परीक्षामुख सूत्रको टीका है, जैसा इसका नाम है वैसा ही विषय प्रतिपादन है । जैसे सूर्य कमलोंको विकसित करता है वैसे समस्त प्रमेयोंको प्रदर्शित करने वाला यह ग्रन्थ है । टीकाकारने टीका करते समय अपनी बुद्धि का पूर्ण परिचय दिया है, ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ टीका ग्रन्थ नहीं मौलिक ग्रन्थ है । युगके अनुरूप टीकामें जो विशेषता होनी चाहिये वह सब प्रस्तुत ग्रन्थ में मौजूद है । सम सामयिक न्याय ग्रन्थोंके जितने भी सूक्ष्म विवेचन हैं वे सब इस ग्रन्थमें मिलेंगे। जहांतक विषय प्रतिपादनका प्रश्न है मूल ग्रन्थ कर्ताके सूत्रोंपर उठनेवाले वादविवादों का सम्पूर्ण हल इसमें मिलेगा । प्रमाणतत्वका विवेचन करना मुख्य रूपसे इस ग्रन्थका विषय है । भाषा एवं शैली प्रमेय कमल मार्तण्डकी भाषा शुद्ध संस्कृत और शैली हेतु परक न्याय संमत है । इतने उच्च कोटिके उद्धरणों के साथ खण्डन मण्डन किया है कि न्यायको समझनेवाला व्यक्ति अपनी जिज्ञासाको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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