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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे "संहृत्य सर्वतश्चिन्तांस्तिमितेनान्तरात्मना । स्थितोपि चक्षुषा रूपमीक्षते साऽक्षजा मति!" ।। १ ॥ [प्रमाणवा० ३।१२४ ] प्रत्यक्षं कल्पनापोटं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति । प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः" ।। २॥ [प्रमाणवा० ३।१२३ ] इति । न चात्रावस्थायां नामसंश्रयतयाऽननुभूयमानानामपि विकल्पानां सम्भवः-अतिप्रसङ्गादित्यप्युक्तिमात्रम् ; अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनलक्षणायां संहृतसकलविकल्पावस्थायां स्थिरस्थूलादिस्वभावा कल्प दोनों में एकत्व का अध्यवसाय होने से निर्विकल्प की विशदता विकल्प में प्रतीत होती है। निर्विकल्प भी एकत्वाध्यवसाय करने में समर्थ नहीं है क्योंकि उसमें वही दोनों को विषय न करने की बात है। बौद्ध-हमारी मान्यता है कि सम्पूर्ण विकल्पों से रहित अवस्था में रूपादि का निर्विकल्प दर्शन होता है यह बात प्रत्यक्ष से अनुभव में आती है । कहा भी है ___चारों ओर से सम्पूर्ण चिन्ताओं को हटाकर निश्चल ऐसे आत्म चक्षु के द्वारा रूप का दर्शन होना इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है ॥१॥ प्रत्यक्ष प्रमाण कल्पना से रहित है वह प्रत्यक्ष से ही सिद्ध होता है, प्रत्येक प्रात्मा के द्वारा वह जाना जाता है अर्थात् सभी को स्वसंवेदन से अनुभव में आता है । तथा विकल्प प्रमाण तो शब्द का प्राश्रय लेकर उत्पन्न होता है ।।२।। सारे विकल्प जहां नष्ट हो गये हैं उस अवस्था में शब्द के आश्रय से होने वाले विकल्प अनुभव में नहीं आते हैं फिर भी यदि मानें तो अति प्रसङ्ग आता है अर्थात् सुप्त मूच्छित आदि अवस्था में भी विकल्प मानने पड़ेंगे। जैन-यह सुगत वादी का कथन सुसंगत नहीं है, कोई पुरुष है वह अश्व का विकल्प कर रहा है उसके उसी समय गो दर्शन हो रहा है जो कि अपने में सम्पूर्ण विकल्प से रहित है, उस अवस्था में स्थिर, स्थूलादि रूप से पदार्थ की प्रतीति कराने वाले तथा विपरीत जो क्षणिक आदि हैं उनके आरोप से जो विरुद्ध है ऐसे प्रत्यक्ष में अनिश्चय का अभाव होगा, अर्थात् प्रत्यक्ष को निश्चायक मानना पड़ेगा, जो आपको इष्ट नहीं है। यदि वह प्रत्यक्ष अनिश्चायक होता तो उस अश्व विकल्प के हटते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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