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________________ ७० प्रमेयकमलमार्तण्डे तथाप्यसौ प्रकृतकार्ये व्यापारान्तरसापेक्षः, निरपेक्षो वा ? न तावत्सापेक्ष ; अपरापरव्यापारान्तरापेक्षायामेवोपक्षीणशक्तिकत्वेन प्रकृतकार्य जनकत्वाभावप्रसङ्गात् । व्यापारान्तरनिरपेक्षस्य तज्जनकत्वे कारकाणामपि तथा तदस्तु विशेषाभावात् । अथैवं पर्यनुयोगः सर्वभावस्वभावव्यावर्तकः; तथाहिवह्राहकस्वभावत्वे गगनस्यापि तत्स्यात् इतरथा वह्नरपि न स्यात्, तदसमीक्षिताभिधानम् ; प्रत्यक्षसिद्धत्वेनात्र पर्यनुयोगस्यानवकाशात्, व्यापारस्य तु प्रत्यक्षसिद्धत्वाभावान्न तथास्वभावावलम्बनं युक्तम् । __ अर्थप्राकट्य व्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानं तं कल्पयतीत्यर्थापपत्तितस्तत्सिद्धिरित्यपि फल्गु ज्ञातृव्यापार मान भो लिया जावे, तो भी वह ज्ञातृव्यापार अपना कार्य जो अर्थ प्रकाशन है उसमें व्यापारान्तर की अपेक्षा रखता है या नहीं ? यदि वह दूसरे व्यापार की अपेक्षा रखता है ऐसा माना जाय तो उस ज्ञातृव्यापार की दूसरे दूसरे व्यापार की अपेक्षा रखने में ही शक्ति समाप्त हो जायगी फिर उसके द्वारा जो अर्थ प्रकाशनरूप कार्य होता है वह कभी नहीं हो सकेगा यदि ज्ञातृव्यापार अर्थ प्रकाशनरूप अपने कार्य में व्यापारान्तर की अपेक्षा नहीं रखता ऐसा माना जाय तो कारक भी व्यापार की तरह अर्थप्रकाशनरूप कार्य करने लग जावेंगे कोई विशेषता नहीं रहेगी। प्रभाकर-जैन की यह प्रश्नमाला सारी ही गलत है, क्योंकि ऐसे कुतर्क करोगे तो सारे ही पदार्थ नि:स्वभाववाले हो जावेंगे। फिर तो ऐसा भी प्रश्न होगा कि अग्नि में जलाने का स्वभाव है तो आकाश में भी वह होना चाहिये, यदि आकाश में वह नहीं है तो अग्नि में भी वह मत होयो ? जैन-यह विना सोचे तुमने कहा-देखो जो प्रत्यक्ष से सिद्ध होता है उसमें प्रश्न नहीं उठा करता है, किन्तु आपका ज्ञातृव्यापार तो ऐसा है नहीं-अर्थात् प्रत्यक्ष है नहीं, अतः उसमें व्यापारान्तर निरपेक्ष होकर कार्य करने का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है, इसप्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान इन दोनों प्रमाणों से ज्ञाता का व्यापार सिद्ध नहीं होता ॥ . प्रभाकर-हम तृतीय विकल्प को प्राश्रित करके ऐसा कहेंगे कि अर्थप्रकाशन ज्ञाता के व्यापार के विना नहीं होता सो इस अर्थपत्ति से वह सिद्ध होगा। जैन - सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह अर्थप्रकटता व्यापार से भिन्न है कि अभिन्न है ? यदि वह उससे अभिन्न है अर्थात् व्यापार और अर्थप्रकटता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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