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________________ इन्द्रियवृत्तिविचारः "प्रतिनियतदेशावृत्तिरभिव्यज्येत्” [ ] इति प्लवते । अथ संयोगः, तदा द्रव्यान्तरत्वप्रसक्त न तद्धर्मो वृत्तिर्भवेत् । अर्थान्तरमसौ; तदा नासौ वृत्तिरर्थान्तरत्वात् पदार्थान्त स्वत् । अर्थान्तरत्वेपि प्रतिनियतविशेषसद्भावात्तषामसौ वृत्ति ; नन्वसौ विशेषो यदि तेषां विषयप्राप्तिरूपः; तदेन्द्रियादिसन्निकर्ष एव नामान्तरेणोक्त स्यात् । स चानन्तरमेव प्रतिव्यूढः । अथाऽर्थाकारपरिणतिः; "प्रतिनियतदेशावृत्तिरभिव्यज्येत्” प्रतिनियत देश में से प्रकट करे, इत्यादि । यदि कहा जाये कि इन्द्रिय और वृत्ति-प्रवृत्ति का संयोग संबंध है सो वृत्ति में इन्द्रिय धर्मता नहीं आती, क्योंकि संयोग पृथक् पृथक् दो द्रव्यों में होता है, इसलिये इन्द्रिय और वृत्ति ये दो द्रव्य हो जायेंगे, फिर इन्द्रिय का धर्म वृत्ति है यह बात नहीं बनती यदि इन्द्रिय से वृत्ति कोई भिन्न ही वस्तु है तब तो उसे "इन्द्रिय की वृत्ति" ऐसा नहीं कह सकोगे जैसे कि दूसरे भिन्न पदार्थों को नहीं कहते । सांख्य- यद्यपि वृत्ति इन्द्रियों से अर्थातर रूप है फिर भी प्रतिनियत विशेष रूप होने से यह वृत्ति इन्द्रियों की है, इस प्रकार कहा जाता है । जैन-अच्छा तो यह बतलाइए कि वह प्रतिनियत विशेष क्या विषय प्राप्ति रूप है अर्थात् इन्द्रिय का विषय के निकट होना यह प्रतिनियत विशेष है, तो इससे तो आपने सन्निकर्ष को ही नामान्तर से कह दिया है, सो उसका तो अभी खंडन ही कर दिया गया है । यदि अर्थाकार परिणति को प्रतिनियत विशेष तुम कहो सो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थाकार होना सिर्फ बुद्धि में ही आपके यहां माना गया है, और कहीं अन्यत्र नहीं, तथा वह अर्थाकार परिणति प्रत्येक इन्द्रिय आदि के स्वभाव वाली नहीं है, और न वह इन्द्रियों की वृत्ति स्वरूप है, न किसी अन्य स्वरूप ही है, क्योंकि उनमें वे पूर्वोक्त दोष आते हैं। तथा सांख्य के यहां परिणामी से परिणाम भिन्न है कि अभिन्न है यह कुछ भी नहीं सिद्ध होता है इस विषय का विचार हम प्रागे करनेवाले हैं। विशेषार्थ-इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण मानने वाले सांख्य के यहां इन्द्रियवृत्ति का लक्षण इस प्रकार पाया जाता है 'इन्द्रियप्रणालिकया बाह्यवस्तुपरागात् सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधाना वृत्तिः प्रत्यक्षम्"-अर्थात् इन्द्रियप्रणाली के द्वारा बाह्य पदार्थ के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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