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________________ (५४) त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावनी परन्तु हरिवंशपुराण' इसका कुछ निर्देश नहीं किया गया । हो, षट्खंडागम आदि ग्रन्थोंमें उसका स्पष्टता से निषेध अवश्य किया गया है । यथा अध सत्तमा पुढवीर णेरइया णिरयादो रइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छेति ! एक्कम्हि चेव तिरिक्खगदिमागच्छेति त्ति । तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा छण्णा उप्पारंति — आभिणिबेोहियणाणं णो उप्पारंति, सुदणाणं णो उप्पारंति, ओहिणाणं णो उपारंति, सम्मामिच्छत्तं णो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएंति, संजमासंजमं णो उप्पारंति (प. खं. पु. ६, ९, २०३-२०६) । इसके विपरीत प्रज्ञापना' और प्रवचनसारोद्धार आदि श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें भी तिलोयपण्णत्ति के समान उनमें सम्यक्त्वकी योग्यता बतलाई गई है । ( ६ ) तिलोयपण्णत्तिकारने कालप्ररूपणा में मोगभूमिजोंका वर्णन करते हुए यह बतलाया है कि अंगुष्ठावलेइन, उपवेशन, अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणप्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्वग्रहण, इन सात अवस्थाओं में उत्तमभोगभूमिजोंके तीन तीन दिन, मध्यमभोगभूमिजोंके पांच पांच दिन और जघन्यभोग भूमिजोंके सात सात दिन व्यतीत होते हैं । परन्तु हरिवंशपुराणकारने उक्त अवस्थाओं में सामान्य रूपसे सात सात दिन व्यतीत होना ही बतलाया है'। यही बात आदिपुराण, त्रिलोकसार और सागारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंमें भी पायी जाती है । (७) इसी प्रकरण में प्रतिश्रुति आदि चौदह कुलकरोंकी उत्पत्ति बतलाते हुए हरिवंशपुराणकारने उन्हें उत्तरोत्तर पहिले पहिलेका पुत्र होना सूचित किया है । परन्तु तिलोयपण्ण त्तिकारने उनको उत्तरोत्तर पुत्र होना तो दूर रहा, किन्तु उनके बीच में आगे आगे पल्यके ..... भाग प्रमाण इत्यादि कालका अन्तर भी बतलाया है । गणितप्रक्रिया से विचार करने ८० पर यही मत ठीक प्रतीत होता है। कारण कि दोनों ही ग्रन्थकर्ताओंने यह समान रूप से स्वीकार १ ह. पु. ४-३७९. २ सप्तम्यां नारका मिथ्यादृष्टयो नरकेभ्य उद्वर्तिता एकमेव तिर्यग्गतिमायान्ति । तिर्यश्वायाताः पंचेन्द्रिय-गर्भज-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुः षूत्पद्यन्ते, नेतरेषु । तत्र चोत्पन्नाः सर्वे मतिश्रुतावधि-सम्यक्त्व- सम्यमिध्यात्व-संयमासंयमान्नोत्पादयन्ति । त. रा. ३, ६, ७. ३ अहे सत्तमपुवी - पुच्छा । गोमया ! णो इणठ्ठे समठ्ठे, सम्मत पुण लभेजा । प्रज्ञापना २०, १०. ४ प्रवचनसारोद्धार १०८७.५ ति. प. ४, ३७९-३८० ३९९-४००, ४०७-४०८. ६ ह्. पु. ७-९२-९४. ७ यथा— पश्यस्य दशमं भागं जीवित्वासौ प्रतिश्रुतिः । पुत्रं सन्मतिमुत्पाद्य जीवितान्ते दिवं स्मृतः [ सृतः ] ॥ ह. पु. ७- १४८. ८ यह अन्तर आदिपुराण ( पर्व ३ श्लोक ७६, ९०, १०२ आदि ) प्रायः सर्वत्र असंख्यात वर्षकोटि प्रमाण बतलाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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