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________________ ३४६ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. १५३९ बहिरा अंधा काणा मूका दारिद्दकोधपरिपुण्णा । दीणा वाणररूवा भइमेच्छा हुंडठाणा ॥ १५३९ कुवामणतणुओं णाणाविहवाहिवेयणावियलौं । बहुकोह लोहमोहा पउराहूवा सहावपाविट्ठा || १५४० संबद्धसजणबंध वधणपुत्तकलत्तमित्तपरिहीणा । पुदिदंगपुदिदकेसा जूवालिक्खाहि संछण्णा ॥ १५४१ णारयतिरियगदीदो आागदजीवा हु एत्थ जम्मंति । मरिदूण य अइघोरे णिरए तिरियम्मि जायते ।। १५४२ उच्छेदभाउविरिया दिवसे दिवसम्मि ताण हीयते । दुक्खाण ताण कहिदु को सकइ एकजीहाए || १५४३ उणवण्णदिवसविरहिदइ गिवीसस हस्सवस्सविच्छेदे । जंतु भयंकरकालो पलयो त्ति पयट्टदे घोरो ॥। १५४४ ता गरुवगभीरो परदि पवणो रउद्दसंवहो' । तरुगिरिसिलप हुदीणं कुणोदि चुण्णाई सत्तदिणे ॥ १५४५ तरुगिरिभंगेहिं णरा तिरिया य लहंति गुरुवदुक्खाईं । इच्छंति वसणठाणं विलवंति बहुप्पयारेणं ।। १५४६ गंगासिंधुनदी वेडवणंतरम्मि पविसंति । पुद्द पुद्द संखेजाई बाहत्तरि सयलजुवलाई || १५४७ देवा विजाहरया कारुण्णपरा णराण तिरियाणं । संखेज्जजीवरासि खिवंति तेसुं पएसेसुं ॥। १५४८ काने, गूंगे, दारिद्र्य एवं क्रोधसे परिपूर्ण, दीन, बन्दर जैसे रूपवाले, अतिम्लेच्छ, हुण्डकसंस्थान से युक्त, कुबड़े, बौने शरीरवाले, नाना प्रकारकी व्याधि और वेदनासे विकल, बहुत क्रोध, लोभ एवं मोहसे संयुक्त, प्रचुर क्षोभसे युक्त, स्वभावसे ही पापिष्ठ; संबन्धी, स्वजन, बान्धव, धन, पुत्र, कलत्र और मित्रोंसे त्रिहीन; पूतिक अर्थात् दुर्गन्धयुक्त शरीर एवं दूषित केशोंसे संयुक्त, तथा जूं और लीख आदि से आच्छन्न होते हैं । १५३८ - १५४१ ॥ इस कालमें नरक और तिर्यंच गतिसे आये हुए जीव ही यहां जन्म लेते हैं तथा यहां से मरकर वे अत्यन्त घोर नरक व तिर्यच गतिमें उत्पन्न होते हैं || १५४२ ॥ दिन-प्रतिदिन उन जीवोंकी उंचाई, आयु और वीर्य हीन होते जाते हैं । इनके दुःखोंको एक जिह्व से कहने के लिये भला कौन समर्थ हो सकता है ? || १५४३ ॥ उनंचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षोंके बीतनेपर जन्तुओंको भयदायक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ॥ १५४४ ॥ उस समय महा गम्भीर एवं भीषण संवर्तक वायु चलती है, जो सात दिन तक वृक्ष, पर्वत और शिलाप्रभृतिको चूर्ण करती है । १५४५ ॥ वृक्ष और पर्वतोंके भंग होनेसे मनुष्य एवं तिर्यंच महादुःखको प्राप्त करते हैं तथा वस्त्र और स्थानकी अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकारसे विलाप करते हैं । १५४६ ॥ . इस समय पृथक् पृथक् संख्यात व सम्पूर्ण बहत्तर युगल गंगा-सिन्धु नदियोंकी वेदी और विजयार्द्धवन के मध्य में प्रवेश करते हैं ।। १५४७ ॥ इसके अतिरिक्त देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यचोंमेंसे संख्यात जीवराशिको उन प्रदेशों में ले जाकर रखते हैं । १५४८ ॥ १ द ब अडमेछा. २ द ब वामणतणुणा. ३ ब विउला ४ द ब विच्छेदो. ५ द ब घोरे. ६ द ब संवट्टा ७ द वासणद्वाणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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