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________________ -४. २२७ ] चउत्थो महाधियारो [१६९ . बासहि जोयणाई दो कोसा होदि कुंडवित्थारो । संगोयणिकत्तारो एवं णियमा णिरूवेदि ॥ २१९ ६२ । को २। । पाठान्तरम् । चउतोरणवेदिजुदो सौ कुंडो तत्थ होदि बहुमज्झे । दीवो रयणविचित्तो चउतोरणवेदियाहि कयसोहो ॥ २२० दसजोयणउच्छेहो सो जलमज्झम्मि अट्टवित्थारो । जलउवरि दो कोसो तम्मझे होदि वजमयसेलो ॥ २२१ १०। कोस २। मूले मझे उवरि चउदुगएका कमेण विस्थिण्णो । दसजोयणउच्छेहो चउतोरणवेदियाहि कयसोहो ॥ २२२ तप्पव्वदस्स उवरि बहुमझे होदि दिब्वपासादो । वररयणकंचणमओ गंगाकूड ति णामेण ॥ २२३ चउतोरणेहिं जुत्तो वरवेदीपरिगदो विचित्तयरो । बहुविहजंतसहस्सो सो पासादो णिरुवमाणो ।। २२४ मुले मज्झे उवरि तिदुगेक्केसहस्सदंडवित्थारो।। दोणिसहस्सोत्तंगो सो दीसदि कडसंकासो ॥ २२५ ३०००।२०००। १०००। २००० । तस्सब्भंतररुंदो पण्णासम्महियसत्तसयदंडा । चालीसचाववासं असीदिउदयं च तदारं ॥ २२६ ७५०।१०।८०। मणितोरणरमणिज वरवजकवाडजुगलसोहिलं । णाणाविहरयणपहाणिच्चुज्जोयं विराजदे दारं ॥ २२७ उस कुण्डका विस्तार बासठ योजन और दो कोस है, संगोयनीके कर्ता इसप्रकार नियमसे निरूपण करते हैं ॥ २१९ ॥ ६२ । को. २। पाठान्तर । वह कुण्ड चार तोरण और वेदिकासे युक्त है । उसके बहुमध्यभागमें रत्नोंसे विचित्र और चार तोरण एवं वेदिकासे शोभायमान एक द्वीप है ॥ २२० ॥ वह द्वीप जलके मध्यमें दश योजन ऊंचा और आठ योजन विस्तारवाला तथा जलके ऊपर दो कोस ऊंचा है । इसके बीचमें एक वज्रमय शैल स्थित है ॥ २२१ ॥ यो. १० । कोस २ । ___ उसका विस्तार मूलमें चार योजन, मध्यमें दो योजन, और ऊपर एक योजन है । वह दश योजन ऊंचा और चार तोरण एवं वेदिकासे शोभायमान है ॥ २२२ ।। उस पर्वतके ऊपर बहुमध्यभागमें उत्तम रत्न एवं सुवर्णसे निर्मित और गंगाकूट इस नामसे प्रसिद्ध एक दिव्य प्रासाद है ॥ २२३ ॥ वह प्रासाद चार तोरणोंसे युक्त, उत्तम वेदीसे वेष्टित, अति विचित्र, बहुत प्रकारके हजारों यंत्रोंसे सहित, और अनुपम है ।। २२४ ॥ वह प्रासाद मूलमें तीन हजार, मध्यमें दो हजार, और ऊपर एक हजार धनुषप्रमाण विस्तारयुक्त, तथा दो हजार धनुषप्रमाण ऊंचा होता हुआ कूटके सदृश दिखता है ।। २२५ ॥ मूलवि. ३०००, मध्यवि. २०००, उपरिमवि. १०००, उत्सेध २००० धनुष । उसका अभ्यन्तर विस्तार सातसौ पचास धनुष, तथा द्वार चालीस धनुष विस्तारवाला और अस्सी धनुष ऊंचा है ।। २२६ ॥ अभ्यं. वि. ७५०, द्वारवि. ४०, उत्सेध ८० धनुष । उसका द्वार मणिमय तोरणोंसे रमणीय, उत्तम वज्रमय दोनों कपाटोंसे शोभायमान, और नाना प्रकारके रत्नोंकी प्रभासे नित्य प्रकाशमान होता हुआ विराजमान है ॥ २२७ ।। द व परिमदो. २ द व तिदुमेक्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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