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________________ ३३५ ४८.७७] ४८. कोडिसिलुद्धरणपव्वं अहवा छड्डेहि इम, सीयाए कारणे असम्गाहं । मा होहि नाह ! दुहिओ, मऊरमूढो जहा पुरिसो ॥ ६२ ॥ वेण्णायडम्मि नयरे, सच्चरुई वसइ तत्थ गहवइओ । नामेण विणयदत्तो, तस्स सुओ रूवसंपन्नो ॥ ६३ ॥ अह विणयदत्तमित्तो, विलासभूह ति नामओ विप्पो । तस्स परिणीऍ समयं आसत्तो सो तहिं अहियं ॥ ६४॥ वयणेण तीऍ नेउँ, रणं छम्मेण विणयदत्तो सो । आरुहिऊण तरुवरे, बद्धो रज्जूहि विप्पेणं ॥ ६५ ॥ तं बन्धिऊण गेह, पविसइ अलियं च उत्तरं दाउं । अच्छइ तीऍ समाणं, भुञ्जन्तो रइसुहं विप्पो ॥ ६६ ॥ एत्थन्तरम्मि पहिओ, तं उद्देसं समागओ मूढो । उवरिं पलोयमाणो, पेच्छइ पुरिसं तरुनिबद्धं ॥ ६७ ॥ आरुहिऊण तरुवर, मुश्चइ तं बन्धणाउ सो पहिओ । तुट्टो य विणयदत्तो, तेण समं पत्थिओ सघरं ॥ ६८॥ दट्ट ण विणयदत्तं, नट्ठो विप्पो तओ अइतुरन्तो । पहिओ वि परिग्गहिओ, मऊरसहिओ गिहत्थेणं ॥ ६९ ॥ अह अन्नया मऊरो, तस्स वि हरिओ नरिन्दपुत्तेणं । सोगाउरो य पहिओ, जाओ मित्तं भणइ एत्तो ॥ ७० ॥ नइ इच्छसि जीवन्तं, तं आणेहिह लहुं मऊरं मे । बद्धो य तरुवरग्गे, मया विमुक्को वणे तइया ॥ ७१ ॥ तस्सुवयारस्स तुमं, पडिउवयारं करेहि नाऊणं । आणेहि मित्त ! सिग्छ, तं पि मऊरं हिययइ8 ।। ७२ ॥ तो भणइ विणयदत्तो, गेण्हसु अन्नं सिहि व रयणं वा । कत्तो सो हु मऊरो, जो गहिओ रायपुरेणं! ॥ ७३ ॥ न य सो गेण्हइ अन्नं, मोरं रयणं व कणयदबं वा । जपइ पुणो पुणो च्चिय, निययसिहि मज्झ आणेहि ॥ ७४ ॥ जह सो मऊरमूढो, पहिओ न य मुयइ दढमसग्गाहं । तेण सरिसो नरुत्तम !, तुमं पि जाओ निरुत्तेणं ॥ ७५ ॥ अहवा रूवमईणं, खेयरधूयाण गुणकरालाणं । होहि तुमं भत्तारो, मोचण तुमं असम्गाह ॥ ७६ ॥ तं भणइ लच्छिनिलओ, जम्बूणय ! मह सुणेहि अक्खाणं । आसि पुरा गहवइओ.पभवो महिला य से उणा ॥७७॥ हे नाथ ! आप सीताविषयक कदाग्रह छोड़ें और मयूरमूढ़ पुरुषकी भाँति आप दु:खित न हों । (६२) वेन्नातट नामके नगरमें सत्यरुचि नामका एक गृहस्थ रहता था। उसका विनयदत्त नामका एक रूपसम्पन्न पुत्र था। (६३) विनयदत्तका विलासभूति नामका एक ब्राह्मण मित्र था। वह उसकी पत्नी में अत्यन्त आसक्त हो गया। (६४) उस पत्नीके कपटपूर्ण वचनसे वह विनयदत्त वनमें ले जाया गया। वृक्ष पर चढ़ा कर ब्राह्मणने उसे रस्सीसे बाँधा । (६५) उसे बाँधकर ब्राह्मणने घरमें प्रवेश किया और झूठा उत्तर देकर उसके साथ रति-सुखका उपभोग करने लगा । (६६) इस बीच एक मूर्ख पथिक उस प्रदेशमें आया। ऊपरकी ओर देखने पर पेड़से बँधा हुआ एक पुरुष उसने देखा । (६७) पेड़ पर चढ़कर उस पथिकने उसे बन्धनसे मुक्त किया। तुष्ट विनयदत्तने उसके साथ अपने घरकी ओर प्रयाण किया । (६८) विनयदत्तको देखकर ब्राह्मण जल्दीसे भागा। मयूर सहित उस पथिकको गृहस्थने अंगीकार किया। (६९) एक बार उसका मोर राजाके पुत्रने ले लिया। इससे पथिक शोकातुर हो गया और उसने मित्रसे कहा कि यदि तुम मुझे जीवित देखना चाहते हो तो वह मोर मुझे जल्दी ही ला दो। उस समय बनमें पेड़के साथ बँधे हुए तुमको मैंने छुड़ाया था। उस उपकारको जानकर तुम प्रत्युपकार करो। हे मित्र! मेरे हृदयप्रिय उस मोरको तुम जल्दी ला दो। (७०-७२) तब विनयदत्तने कहा कि दूसरा मोर या रत्न लो। राजाके कुँवरने जो ले लिया वह मोर कैसे मिल सकता है? (७३) उसने दूसरा मोर, रत्न या सोना लिया नहीं और बार बार कहने लगा कि मेरा मोर मुझे ला दो (७४) हे नरोत्तम! जिस तरह वह मयूरमूद पथिक अपना दृढ़ कदाग्रह नहीं छोड़ता था, निश्चित रूपसे आप भी उसीके समान हुए हैं। (७५) अतएव आप अपना कदाग्रह छोड़ करके रूपवती और ऊँचे गुणोंवाली विद्याधर कन्याओंके पति बनें । (७६) इस पर उसे लक्ष्मणने कहा कि, हे जाम्बूनद ! तुम मेरा आख्यान सुनो। प्राचीन समयमें प्रभव नामका एक गृहस्थ था। यमुना उसकी पत्नी थी। (७७) उसके तीन पुत्र थे आत्मश्रेय, तथाविध तथा सब कार्यों में उद्यत तीसरा १. जमुणा-प्रत्य Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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