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________________ ३३० पउमचरियं [४७.४३दट्टण रामदेवं, वेयाली निग्गया महाविज्जा । साहसगई वि जाओ, साहावियरूवसंठाणो ॥ ४३ ॥ सुग्गीवरूवसहियं, दट्टणं साहसं . मरगया । रुट्ठा वाणरसुहडा, मिलिया सबे वि एगढें ॥ ४४ ॥ संगामम्मि पवत्ते, धरिओ च्चिय लक्खणेण सुग्गीवो । साहसगईण वि तओ, भगं तं वाणराणोय ॥ ४५ ॥ भग्गं दट्टण रणे, कइसेन्नं राघवो सरसएसु । आहणइ साहसगई, सुइरं काऊण रणलील ॥ ४६॥ तिक्खसरभिन्नदेहो, पडिओ च्चिय साहसो धरणिवट्टे । दिट्टो विमुक्कजीओ, वाणरसुहडेहि सबहिं ॥ ४७ ॥ निहयं दटू ण अरिं, सुग्गीवो राघवं संसोमित्ती । पूएइ पययमणसो, पेसेइ य पट्टणं निययं ॥ ४८॥ ठविऊण वरुज्जाणे, पउमाभं वाणराहिवो एत्तो। पविसरइ सिरिहरं सो, दइयाउक्कण्ठिओ सिग्धं ॥ ४९ ॥ जाओ तारा' समं, समागमो तत्थ वाणरिन्दस्स । रइसागरमोगाढस्स तस्स दियहा य वच्चन्ति ॥ ५० ॥ सुहडा विराहियाई, तत्थेवाऽऽणन्दकाणणे सवे । आवासिया ससेन्ना, रामो चन्दप्पहहरम्मि ॥ ५१ ॥ सबङ्गसुन्दरीओ, तेरस कन्नाउ वाणरवइस्स । गन्तूण पउमनाहं, भणन्ति अम्हं वरो तहयं ॥ ५२ ॥ पढमा वि य चन्दाभा, अन्ना हिययावली हिययधम्मा । एत्तो अणुद्धरी पुण, सिरिकन्ता सुन्दरी चेव ॥ ५३ ॥ कन्ना सुरमइनामा, हवइ मणोवाहिणी य चारुसिरी । मयणूसवा गुणवई, पउमाभा जिणमई चेव ॥ ५४ ॥ जोवणरूवधरीओ, इमाउ कन्नाउ पेच्छिउँ पउमो । उक्कातडीसमाओ, मन्नइ सीयाविओयम्मि ॥ ५५ ॥ रामस्स सन्नियासे, तत्थ निविट्ठाउ ताउ कन्नाओ। मण-नयणहारिणीओ, विणओणयवयणकमलाओ ॥ ५६ ॥ कन्नाण जोवणधरीण वि रामदेवो, ताणं च सो न अ ज्वेइ मणाभिलासं । नेहेण पुबभवसंचियनिच्छिएणं, सोयं सया विमलतिबगुणं मुणेइ ॥ ५७ ॥ ॥ इय पउमचरिए सुग्गीवपहाणवक्खाणं नाम सत्तचत्ताल पवं समत्तं ।। रामने युद्धक्षेत्रमें, पर्वतोंसे रुद्ध होनेवाले बादलकी भाँति, उसे रोका । (४२) रामको देखकर वैताली महाविद्या बाहर निकल गई। साहसगति भी स्वाभाविक रूप एवं आकारवाला हो गया । (४३) सुप्रीवके रूपसे युक्त तथा मरकत मणिकी-सी कान्तिवाले साहसगतिको देखकर वानरसुभट रुष्ट हुए। वे सब एक स्थान पर जमा हुए। (४४) संग्राम होने पर लक्ष्मणने सुग्रीवको रोका। तब साहसगतिने वानरसेनाको नष्ट कर डाला। (४५) कपिसैन्यका विनाश देखकर रामने चिर कालपर्यन्त रणलीला करके सैकड़ों बाणोंसे साहसगति पर प्रहार किया। (४६) तीक्ष्ण बाणोंसे भिन्न शरीरवाला साहसगति जमीन पर गिर पड़ा। सब वानर सुभटोंने उसे प्राणहीन देखा । (४७) शत्रुको मरा देख सुग्रीवने हर्षित मनसे लक्ष्मण सहित रामकी पूजा की और अपने नगरमें प्रवेश किया। (४८) एक सुन्दर उद्यानमें रामको ठहरा कर पत्नीके लिए उत्कण्ठित उस वानरनरेश सुप्रीवने शीघ्र ही अन्तःपुरमें प्रवेश किया । (४९) वहाँ वानरेन्द्रका ताराके साथ समागम हुआ। प्रेमके सागरमें अवगाहन करते हुए उसके दिन बीतने लगे। (५०) ससैन्य विराधित आदि सब सुभट उसी आनन्दकाननमें और राम चन्द्रप्रभ-गृहमें ठहराये गये। (५१) वानरपतिकी सर्वांगसुन्दर तेरह कन्याओंने रामके पास जाकर कहा कि आप हमारे वर हैं। (५२) पहली चन्द्राभा, दूसरी हृदयावली, हृदयधर्मा, अनुद्धरा, श्रीकान्ता, सुन्दरी, सुरमति, मनोवाहिनी, चारुश्री, मदनोत्सवा, गुणवती, पद्माभा और जिनमति-यौवन एवं रूपधारी इन कन्याओंको देखकर रामने सीताके वियोगमें उन्हें उल्का एवं विजलीके समान समझा.। (५३-५५) मन एवं नेत्रोंको सुन्दर लगनेवाली तथा विनयके कारण झुके हुए वदनकमलसे युक्त वे कन्याएँ वहाँ रामके समीप बैठीं। (५६) यौवनधारी उन कन्याओंके होने पर भी वे राम मनकी चाह अर्थात् सुख प्राप्त नहीं करते थे। पूर्वभवमें संचित दृढ़ प्रेमके कारण निर्मल एवं उत्कट गुणोंसे युक्त सीताका ही वे चिन्तन करते थे । (५७) ॥पद्मचरिचमें सुग्रीवके वधका आख्यान नामक सैंतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। . साहसगई-प्रत्य० । २. ससोमित्ति-प्रत्यः । lain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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