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________________ १२६ पउमचरियं पब ज्जा [ ११.९४चचारि सहस्साईं, मरीइसहियाण नरवरिन्दाणं । घेत्तूण निणसयासे, पडिनियत्ताई ॥ ९४ ॥ तण्हा - छुहाकिलन्ता, आरण्णं पविसिऊण दीणमुहा । तरुवरफलासणा ते, तावसपासण्डिणो नाया ॥ ९५ ॥ एवं ते पुहइतले, मोहेन्ता नणवयं कुसत्थेसु । जाया तावसविप्पा, विज्जं पिव वडिया बहवे ॥ ९६ ॥ तित्थयरेसु वि न कयं, धम्मेकमणं जणं निरवसेसं । किं पुण दसाणण तुमे, कीरइ निणसासणमतीयं ? ॥ ९७ ॥ सुणिऊण पगयमेयं, उसभजिणं पणमिऊण दहवयणो । वारेइ सुत्तकण्ठे, हम्मन्ते रक्खसभडेहिं ॥ ९८ ॥ मरुओ वि नरवरिन्दो, अञ्जलिमउलं करेवि नियसीसे । पणमइ लङ्काहिवई, भिच्चो हं तुज्झ साहीणो ॥ ९९ ॥ कणयप्पभा कुमारी, दिन्ना मरुएण रक्खसिन्दस्स | परिणीया चन्दमुही, जोबण-लायण्णपडिपुण्णा ॥ १०० ॥ रममाणस्स रइगुणे, तीए संवच्छरस्स उप्पन्ना । दुहिया विचित्तरूवा, कयचित्ता नाम नामेणं ॥ दुई यलम्म सुहडा, जे सूरा दप्पिया बलसमिद्धा । ते ते ठावेइ वसे, दसाणणो अत्तणो सबे ॥ जनपदानुरागवर्णनम् - १०१ ॥ १०२ ॥ गणेण वच्चमाणो, गामा - SSगर - नगर - पट्टणसमिद्धं । पेच्छइ य मज्झदेसं, काणण-वणमण्डियं रम्मं ॥ अवइण्णो दहवयणो, नयरब्भासे ठिओ जणवएणं । नर-नारीहि सहरिसं, पेच्छिज्जइ कोउहल्लेणं ॥ मरगयमऊहसामो, वियसियवर कमलसरिसमुहसोहो । वित्थिण्णविउलवच्छो, पीणुन्नयदीहबाहुजुओ ॥ ली उस समय उनके पास मरीचि सहित दूसरे चार हजार राजाओंने दीक्षा लो थी, किन्तु उसमें टिक न सकने के कारण वे वापस लौट गये । (९३-९४) भूख एवं प्यास से पीड़ित तथा दीनवदन वे जंगलमें प्रवेश करके वृक्षोंके फल खाने लगे और इस तरह ! वे तापस- पाखण्डी' हुए। ( ९५ ) इस प्रकार धरातल पर कुशाखों में लोगोंको मोहित करनेवाले वे वापस और ब्राह्मण हुए। उन्होंने बहुतसी विद्याओंका विकास किया । (९६) हे दशानन ! तीर्थंकर भी सब लोगोंको धर्ममें एकचित्त नहीं कर सके हैं, तो क्या तुम सबको जिन शासनमें श्रद्धा रखनेवाला बना सकोगे ? (९७) तापसांकी यह बात सुनकर दशवदनने ऋषभ जिनेश्वरको प्रणाम किया और राक्षस भटों द्वारा पीटे जाते ब्राह्मणोंको रोका। (९८) राजा मरुत्ने भी अपने सिर पर हाथ जोड़कर लंकाधिपको प्रणाम किया और कहा कि मैं आपका अधीन एक भृत्य हूँ । (९९) बादमें मरुतने कनकप्रभा नामकी अपनी लड़की राक्षसेन्द्रको दी । चन्द्रके समान मुखवाली तथा यौवन एवं लावण्यसे परिपूर्ण उस कन्याका विवाहमंगल सम्पन्न हुआ । (१००) उसके साथ कामविलास करते हुए उसको एक सालके बाद कृतचित्ता नामकी एक विचित्र रूपवाली कन्या हुई । (१०१) १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ इस पृथ्वीतल पर जो जो शूरवीर, घमण्डी और बलशाली सुभट थे उन सबको दशाननने अपने बसमें कर लिया । (१०२) एक बार आकाश मार्गसे जाते हुए उसने गाँव आकर, नगर एवं पत्तनोंसे समृद्ध तथा बाग़-बगीचोंसे रम्य मध्यदेश देखा । (१०३) दशवदन नीचे उतरा और उस जनपदके नगरके समीप आ ठहरा। स्त्री एवं पुरुष सब उसे आनन्द और कुतूहलके साथ देखने लगे । (१०४) मरकतमणिकी किरणोंके समान श्याम वर्णवाले, विकसित उत्तम कमलके समान शोभायुक्त मुखवाले, विशाल एवं मोटी छातीवाले, मोटो, ऊँची और लम्बी दो भुजाओंवाले, हाथकी पकड़ में आ सके ऐसी तथा सिंहकी कमरके समान पतली कमरवाले, हाथीकी सूँढ़के समान जाँघवाले, उत्तम कछुएके समान सुन्दर १. पाखण्ड शब्द मूलमें एक अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होता था। अशोकके समय में बौद्ध तर सम्प्रदायको 'पाखण्ड' कहते थे । अशोक के शासनलेखों परसे ज्ञात होता है कि ऐसे सम्प्रदाय के अनुयायीको उसकी ओर से दान आदि भी दिये गये हैं । जैन सूत्रों में भी जैनेतर सम्प्रदायों के लिए 'पासण्डी' शब्दका प्रयोग हुआ है । कालान्तर में अपनेसे विरोधी सम्प्रदायके लिए इसका उपयोग होने लगा और समय बोतने पर तो संस्कृत एवं लोकभाषाओं में भी 'पाखण्डी' का अर्थ धर्मका ढोंग करनेवाला, बदमाश, लुच्चा हो गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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