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________________ पउमचरियं किं अत्थि तुज्झ सुन्दरि, चिन्ता दुक्खं व दारुणं अने। हियइच्छियं च दवं, जं मग्गसि तं पणाममि ॥ ३ ॥ नं एव पुच्छ्यिा सा, पसयच्छी भणइ को वि मे एसो । जत्तो पमूह गब्भो, 'संभूओ कम्मदोसेण ॥ ४ ॥ तत्तो पभूइ नरवइ!, इच्छामि सुराहिवस्स संपत्ती । दट्ट ते परिकहियं, मोत्तण कुलागय लज्ज ॥ ५॥ अह तेण तक्खणं चिय, विज्जाबलगबिएण होऊण । इन्दस्स परमरिद्धी,परिसाई दरिसिया तीए ॥ ६ ॥ संपुण्णडोहला सा, जाया मण-नयणनिबइपसत्था । काले तओ पसूया, सुरवइसरिसं वरकुमारं ॥ ७॥ कारावियं च सबं, जम्मूसवमङ्गलं नरवईणं । इन्दो य तस्स नाम, जणियं इन्दाभिलासेणं ॥ ८॥ अह सो कमेण एत्तो, जोवण-बल-विरिय-तेयमाहप्पो । बिज्जाहराण राया, जाओ वेयवासीणं ॥ ९ ॥ चत्तारि लोगपाला, सत्त य अणियाइँ तिण्णि परिसाओ। एरावणो गइन्दो, वजं च महाउहं तस्स ॥ १० ॥ चत्तालीसं ठविया, तस्स सहस्सा हवन्ति जुवईणं । मन्ती बिहप्फई से, हरिणिगमेसी बलाणीओ ॥ ११ ॥ तो सो नमि नज्जइ, सबेसिं खेयराण सामित्तं । कुणइ सुवीसत्थमणो, विज्जाबलगविओ धीरो ॥ १२ ॥ लकाहिवो वि माली, इन्दं सोऊण खेयराणिन्द । बल-भाइ-मित्तसहिओ, तस्सुवरि पत्थिओ सहसा ॥ १३ ॥ गय-तुरय-वसभ-केसरि-मय-महिस-वराहवाहणारूढा । बच्चन्ति रक्खसभडा, छायन्ता अम्बरं तुरिया ॥ १४ ॥ सबत्थसत्थकुसलो, भणइ सुमाली सहोयरं जेट्टं । एत्थं कुणहाऽऽवासं, अहव पुरिं पडिनियत्तामो ॥ १५ ॥ दीसन्ति महाघोरा. उप्पाया सउणया य विवरीया । एते कहन्ति अजयं. अम्हं नत्थेत्थ संदेहो ॥१६॥ रिट्ठ-खर-तुरय-वसहा, सारस-सयवत्त-कोल्हुयाईया । वासन्ति दाहिणिल्ला, एते अजयावहा अम्हं ॥ १७ ॥ शरीरवाली देखकर राजाने पूछा-हे सुन्दरी! तुझे क्या चिन्ता है ? और तेरे शरीरमें कौन-सा दारुण दुःख है? मनमें जो भी ईप्सित पदार्थ हो वह तू माँग। मैं उसे अभी उपस्थित करता हूँ।' (२-३) इस प्रकार पूछनेपर आँखें फैलाकर उसने कहा-'हे राजन् ! कर्मके दोषसे जबसे यह मेरे गर्भमें आया है तबसे मेरी इच्छा हो रही है कि मैं इन्द्रकी सम्पत्ति देखू। कुलक्रमागत लज्जाका परित्याग करके मैंने आपसे यह बात कही है। (४-५) विद्या एवं बलसे गर्वित उसने तत्क्षग इन्द्रकी परम ऋद्धि फैलाकर उसे दिखाई । (६) दोहद पूर्ण होनेपर उसके मन और नेत्र प्रशस्त स्वस्थताका अनुभव करने लगे। समय होनेपर उसने इन्द्रके तुल्य एक उत्तम कुमारको जन्म दिया। (७) राजाने जन्मोत्सवके समग्र मंगल मनाये। इन्द्र के ऐश्वर्यकी अभिलाषा हुई थी, अतः उसका नाम इन्द्र रखा गया। (८) अनुक्रमसे यौवन, बल, सामर्थ्य, तेज व बड़प्पनको प्राप्त करके वह वैताव्यवासो विद्याधरोंका राजा हुआ। (९) चारों लोकपाल, अणिमा आदि सातों ऋद्धियाँ, तीनों परिषद्, ऐरावत हाथी, महान् आयुध वन, चालीस हजार त्रियाँ, बृहस्पति मंत्री तथा हरिणैगमेषि सेनापति-ये सब उसकी सेवामें उपस्थित थे। (१०-११) इससे वह नमिकी भाँति मालूम होता था। विद्या एवं बलसे गर्वित वह धीर राजा विश्वासके साथ राज्य करता था । (१२) सुमालीका इन्द्रपर आक्रमण और पराजय विद्याधरोंको आनन्द देनेवाले इन्द्रके बारेमें सुनकर सेना, भाई एवं मित्रोंके साथ लंकानरेश विमालीने उसके ऊपर सहसा धावा बोल दिया। (३) हाथी, घोड़े, बैल, सिंह, हरिण, भैस, सूअर जैसे वाहनोंके ऊपर आरूढ़ राक्षस योद्धा एकदम आकाशको छाकर चल पड़े। (१४) सर्व प्रकारके अत्र एवं शस्त्रोंमें कुशल सुमालीने अपने बड़े भाईसे कहा कि यही पडाव डालो, अथवा मैं वापस लंकानगरी लौट जाता हूँ। (१५) अत्यन्त भयंकर उत्पात तथा खराब शकुन दिखाई । ये कह रहे हैं कि हमारो पराजय होगी। मुझे इसमें सन्देह नहीं है। (१६) अरिष्टसूचक गदहे, घोड़े, बैल, सारस, शतपत्र (पक्षी विशेष ), सियार आदि दक्षिण दिशामें बोल रहे हैं। ये हमारी हारके सूचक हैं। (१७) यह कथन १. संजाओ-प्रत्य० । २. खेयराणंद-मुः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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