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________________ क्या अहिंसा अव्यवहार्य है ? अहिंसा के सम्बन्ध में आज के संसार के सामने एक विकट प्रश्न उपस्थित है। जब तक उस प्रश्न को अच्छी तरह से हल नहीं कर लिया जाता है, तब तक इससे सम्बन्धित शंकाओं का पूरी तरह समाधान नहीं हो सकता । कुछ लोग कहते हैं कि अहिंसा के सिद्धान्त भी बहुत अच्छे हैं, समय-समय पर अहिंसा का जो विश्लेषण किया गया है, उनकी जो व्याख्याएँ की गई हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं और इतनी ऊँची हैं कि वास्तव में हमें उनका आदर करना चाहिए। हिंसा : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य ___ अहिंसा एक निषेधात्मक शब्द है हिंसा का। हिंसा नहीं करनी चाहिए, बस यही अहिंसा का आशय है, किंतु हिंसा के लिए यह शब्द कोई दिशानिर्देश नहीं करता, बल्कि विशालता का एक उन्मुक्त धरातल प्रदान करता है । हिंसा चाहे शारीरिक हो, मानसिक हो अथवा कार्मिक हो, वैयक्तिक हो, पारिवारिक हो, सामाजिक हो, राष्ट्रीय हो अथवा अन्तर्राष्ट्रीय हो--यह प्रत्येक क्षेत्र में अपेक्षाक्रम से वर्जित है । __जब हम सुदूर अतीत पर अवलोकन करते हैं, तो आज से २५०० वर्ष अतीत के गौरवपूर्ण उन्मेष पर एक बार दृष्टि थम जाती है, जबकि भगवान् महावीर एवं तथागत बुद्ध ने हिंसा के विरुद्ध सात्विक क्रांति करके अहिंसा की पुनःस्थापना की। भयंकर से भयंकर डाकू एवं हत्यारों ने भी अहिंसावत को उन महान् पुरुषों की सत्प्रेरणा से जीवन में अपना कर अपने जीवन को धन्य-धन्य किया था । और एक बार फिर से चतुर्दिक अहिंसा-दया, प्रेम, करुणा का सौम्य वातावरण उमड़ उठा था। कुछ लोगों की दृष्टि में अहिंसा अव्यवहार्य किन्तु कुछ लोग यों मानने लगे कि जहाँ अहिंसा की लम्बी-चौड़ी व्याख्याएँ की गई हैं । वहीं वह अव्यवहार्य भी बन गई; अर्थात् --व्यवहार में आने लायक नहीं रही । जीवन में उतारने योग्य भी न रही । यदि उसके सहारे जीवन-यात्रा पूरी करना चाहें तो कर नहीं सकते । कोई अच्छी बात तो हो, किन्तु काम में आने के लायक नहीं हो तो, फिर उसका क्या मूल्य है ? चीज तो अच्छी है, पर लेने योग्य नहीं है-इसका क्या अर्थ हुआ ? यदि अहिंसा जीवन में उतारने लायक नहीं है, उसके सहारे हम जीवनयात्रा तय नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह हुआ कि वह निरर्थक वस्तु है, अयोग्य है और जीवन में उसका कोई मूल्य ही नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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