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________________ ३३२ अहिंसा-दर्शन भावना से, जिस उद्योग में त्रस जीवों का हनन किया जाता है, वही महारंभ की भूमिका में आता है। अन्न की समस्या जिस देश में अन्न की काफी जरूरत है, जिसे आधे से अधिक अन्न सुदूर विदेशों से मंगाना पड़ता है, जिस देश के लिए अमेरिका और आस्ट्रेलिया से रोटियाँ आती हैं और उसके बदले में करोड़ों-अरबों की गाढ़ी कमाई की सम्पत्ति बाहर चली जाती है, और उस सम्पत्ति के बदले में सत्त्वहीन, सड़ा-गला एवं निकम्मा अनाज मिलता है । जिसको खा कर लोग तरह-तरह की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं और उसके भी अभाव में लाखों आदमी मर गए और आज भी मर रहे हैं, उस देश में प्याज की खेती का प्रश्न पहले विचारणीय नहीं है। वहाँ तो पहले अन्न की समस्या है और उसी के समुचित समाधान के लिए सर्वप्रथम विचार करना होगा। मान लो, कुछ लोगों के खेतों में अन्न नहीं उपजता । ऐसे लोगों में से एक अपने खेत में आलू बो रहा है और दूसरा तम्बाकू बो रहा है, तो तम्बाकू बोने में ज्यादा हिंसा है, क्योंकि तम्बाकू व्यसन की वस्तु है, जीवन-निर्वाह की वस्तु नहीं है। तम्बाकू जहर पैदा करता है और स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला मादक पदार्थ है और उसे पैदा करने वाला केवल अपने स्वार्थ की भावना से ही पैदा करता है । उससे किसी प्रकार के परोपकार की आशा नहीं है, किसी के जीवन-निर्वाह की सम्भावना नहीं है । भूख से मरने वाले को तम्बाकू खिला कर जीवित नहीं रखा जा सकता । तम्बाकू खाने से मृत्यु दूर नहीं होगी, बल्कि निकट ही आती है। अपेक्षाकृत आलू या प्याज को व्यसन की वस्तु नहीं बताया गया है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि आलू और प्याज की खेती में आरम्भ नहीं है। आरम्भ तो अवश्य है और अन्न की अपेक्षा विशेष आरंभ है; फिर भी वह महारंभ की भूमिका में नहीं है; अर्थात्--वह नरक-गमन का हेतु नहीं है । एक आदमी के खेत में आलू ही उत्पन्न होते हैं और वह सोचता है कि लोगों को खुराक नहीं मिल रही है, तो मैं आलू उत्पन्न करके यथाशक्ति पूर्ति क्यों न करूं ? यही सोच कर वह आलू की खेती करता है । दूसरा सोचता है कि तम्बाकू से दूसरों का स्वास्थ्य नष्ट होता है, तो भले हो । उसे किसी के स्वास्थ्य से क्या मतलब ! उसे तो पैसा चाहिए । इसीलिए वह तम्बाकू की खेती करता है। स्पष्ट है कि आलू की अपेक्षा तम्बाकू की खेती में अधिक पाप है। इस प्रकार आलू की खेती में अन्न की खेती की अपेक्षा अधिक पाप है और तम्बाकू की खेती की अपेक्षा अल्प पाप है । यही अनेकान्त का निर्णय है। निर्णय कठिन अभिप्राय यह है कि किसी भी कार्य में एकान्तरूप से आरम्भ की अल्पता या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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