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________________ ३०२ अहिंसा-दर्शन पानी होना चाहिए और इतना स्वच्छ होना चाहिए कि जितना-जितना जनता के सामने ले जाया जाए, लोग प्रसन्न हो जाएँ और उसे इज्जत की निगाह से देखें। परन्तु ऐसा करते समय हम उसकी ठोस सच्चाइयों को अपने सामने रखें और उन्हीं के बल पर उसे और अपने आपको आदर का पात्र बनाएँ। धूम मच जाती भगवान् ऋषभदेव जैसा आदर्श जीवन यदि किसी दूसरे समाज के सामने होता तो घूम मच जाती और वह समाज उसके लिए गौरव का अनुभव करता । किन्तु वह उनको मिला है, जो दुर्भाग्य से आज भी यह कहने को उतावले हैं कि भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थदशा में जो कुछ भी किया, वह सब संसार का कार्य था। उन्होंने कोई सत्कर्म नहीं किया। वे तो यहाँ तक कहने का दुस्साहस करते हैं कि उन्होंने गृहस्थ-दशा में विवाह भी किया, राजा भी बने और संसार की समस्त क्रियाएँ भी की। ऐसा कहने वाले घर में रखी हुई सुन्दर-सुन्दर वस्तुओं की ओर न देख कर गन्दी मोरियाँ ही तलाश करते हैं । यह कहना कितना अभद्र है कि भगवान् ने चूंकि गृहस्थावास में ही यह कहा है, साधु हो कर नहीं, इसलिए वह पाप था और गुनाह था ! उनमें जो अनगिनत बुराइयाँ उस समय मौजूद थीं, उनमें से यह भी एक थी । यह तो संसार का मार्ग है, जो भगवान् ने बता दिया है। ___ क्या यह भाषा जैन-धर्म की भाषा है ? श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं स्थानकवासियों की भाषा है या किसी पड़ोसी समाज की भाषा है? यह जो कहने का ढंग है, वह जैनमतावलम्बियों का है या और किसी का है ? क्या यह प्राचीन जैन-धर्म की सांस्कृतिक भाषा है, या कुछ वर्षों से जो नई परम्परा चल पड़ी है, उसके बोलने की आधुनिक तर्ज है ? जीतकल्प खोज करने पर मालूम होता है कि यह उन नए विचारकों की भाषा है, जो कहते हैं कि यह तो भगवान् का जीतकल्प था, करना ही पड़ता। अब प्रश्न सामने आता है कि उन्होंने जो वर्षीदान दिया, वह किस अवस्था में दिया ? उनका उत्तर है कि गृहस्थावस्था में ही दिया और वह भी दिया क्या, देना ही पड़ा ! 'पड़ा' शब्द को जैन-धर्म की ओर से न बोल कर उन नए विचारकों की तरफ से बोलना अच्छा होगा, जो यह कहते हैं कि 'करना पड़ा' और 'वह उनका जीतकल्प था' । वे तो ऐसा कहते हैं, पर क्या अन्य लोग भी ऐसा ही कहते हैं ? अन्य लोग तो तीर्थंकरों के द्वारा दिए गए वर्षीदान की महिमा गाते हैं, उसके प्रति गौरव का अनुभव करते हैं और मानते हैं कि भगवान् लगातार वर्षभर दान देते रहे और इस रूप में उन्होंने जनता की बड़ी भारी सेवा की है, परन्तु वे उस दान को धर्म नहीं कहते । उनका कहना है, गृहस्थी में रहते हुए जैसे विवाह किया, राजा बने, वैसे ही दान भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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