SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवित्रता से सामाजिक अहिंसा की प्रतिष्ठा २४६ में जो भूलें या गलतियाँ हो गई हों और जिनके कारण मानव-जीवन में काँटे पैदा हो गए हों, उनको भी एक-एक करके चुनना और जीवन-मार्ग से अलग करना है । जीवनमार्ग को स्वयं अपने लिए और दूसरों के लिए भी साफ एवं सुदृढ़ बनाना ही मनुष्य जीवन का मूल ध्येय है।" इस प्रकार अहिंसा अपनी महती उपयोगिता के अनुसार फूलों की राह है, काँटों की नहीं । कहने को तो हमें कठिनाई मालूम होती है और जब-जब हम अहिंसा के मार्ग पर चलने का प्रयत्न करते हैं और चलते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि यह जीवन की सहज सुखद राह नहीं है । किन्तु यह निश्चित सा है कि जीवन यदि चलेगा तो अहिंसा के मार्ग पर ही चलेगा। हिंसा के द्वारा जीवन में कठिनाइयाँ ही बढ़ती हैं, उसके द्वारा किसी कठिनाई को किसी भी अंश में हल कर सकना बिलकुल सम्भव नहीं है। जैन-धर्म का सन्देश जैन-धर्म संसार को एक सन्देश देने के लिए आया है कि--'जितने भी मनुष्य हैं, वे चाहे संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक कहीं भी क्यों न फैले हों, सब मनुष्य के रूप में एक हैं । उनकी जाति और वर्ग मूलतः अलग-अलग नहीं हैं। उनका अलगअलग कोई समूह नहीं है । विभिन्न जातियों के रूप में जो समूह आज बन गए हैं, वे सब विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धों को ले कर ही बने हैं । आखिर, मनुष्य को जिन्दगी गुजारनी है, तो उसे पेट भरने के लिए कोई न कोई उपयोगी धन्धा करना ही पड़ता है । कोई कपड़े का व्यापार करता है, कोई अन्न का व्यापार करता है, कोई दफ्तर जाता है और कोई कुछ और कर लेता है । यह तो जीवन की सामान्य समस्याओं को को हल करने के सामान्य तरीके हैं । किन्तु इन तरीकों के विषय में मनुष्य ने जो पवित्रता और अपवित्रता के भाव बना लिए हैं कि-अमुक जाति पवित्र है और अमुक जाति अपवित्र है, यह कैसी अभद्रता है ? इस सम्बन्ध में तो ऐसा कहा जा सकता है कि यह कोरा मिथ्या अहंकार है, और कुछ भी नहीं है। वृत्तियाँ मनुष्य के जीवन में अपने आपको श्रेष्ठ और उँचा समझने की एक वृत्ति है; और वह वृत्ति छोटे से छोटे में, प्रत्येक नौजवान में और बूढ़े में भी एक-सी देखी जाती है, जिसके कारण जहाँ कहीं वह अपने अभिमान को चोट खाते देखता है, वहीं वह सही मार्ग से विचलित हो जाता है और आपे में नहीं रह पाता। किन्तु भारतवर्ष में कुछ लोगों में एक बात और पाई जाती है। वे अपने आपको तुच्छ और दीन-हीन समझने की ही मनोवृति से घिरे रहते हैं। वे अपने में दुनियाभर के पाप और बुराइयाँ समझ कर चलते हैं। इसी भावना का यह दु:खद परिणाम है कि ऐसे लोग जब चलते हैं, तब रोते और गिड़गिड़ाते हुए दिखाई देते हैं। उनमें आत्म-विश्वास नहीं होता । आत्मा की आध्यात्मिक शक्ति के प्रति उनके मन में दृढ़ आस्था का ___Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy