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________________ २०६ अहिंसा-दर्शन - एक घटना है-एक बार मैं विहार कर रहा था। धूप कुछ तेज पड़ रही थी, फलतः विश्राम कर लेना चाहा । रास्ते में एक तिबारा आया। तिबारे के सामने ही कुछ वृक्ष थे । विश्राम करने के लिए मैं उन वृक्षों की छाया में बैठने लगा तो साथ के एक श्रावक भाई ने कहा-"महाराज ! आपको छाया में बैठना हो तो आगे बैठिए; यहाँ मत बैठिए !" मैंने कहा-'यहाँ ऐसी क्या बात है ?' तब वह बोला---'आपको मालूम नहीं कि यह तिबारा, वृक्ष और कुआ एक वेश्या की सम्पत्ति से बने हैं। वेश्या पहले वेश्यावृत्ति करती थी, किन्तु बाद में वह प्रभु की भक्त पुजारिन बन गई और जब ईश्वरभक्ति में लग गई तो उसने सोचा कि कुछ परोपकार का काम करूं। इसी विचार से प्रेरित हो कर उसने वेश्यावृत्ति से कमाए हुए अपने धन से ये सब बनवाए हैं। जब ऐसे निकृष्ट धन से बनवाए गए हैं तो फिर आप सरीखे संत को यहाँ नहीं बैठना चाहिए।" मैंने सोचा---'एक तरफ तो यह कहता है कि वेश्या बदल गई, भक्त बन गई और जब उसमें सद्बुद्धि जागृत हो गई तो उसने अपने पिछले आचरण के प्रायश्चित्त के रूप में यह सत्कार्य किया और दूसरी ओर यहाँ बैटने से भी परहेज करने को कहता है ! दुर्भाग्य है हमारे समाज का कि सैकड़ों लोग उस कुए का पानी भी नहीं पीते और तिबारे में बैठने तथा वृक्ष की छाया में विश्राम लेने में भी पाप समझते हैं । ऐसे अभागे लोगों को आप दान और पुण्य भी नहीं करने देते । क्या उनका दान और पुण्य भी अपवित्र है ? बस, आपके ही हाथ की कमाई पवित्र है, चाहे वह जनता का रक्त-शोषण करके ही क्यों न एकत्र की गई हो ? वास्तव में वेश्या की कमाई, गलत कमाई थी, किन्तु बाद में उसके अन्दर जब सद्बुद्धि जागृत हो गई और उसने प्रायश्चित्त के रूप में सारा धन सत्कर्म में लगा दिया, तो क्या हमें अब भी उससे घृणा करनी चाहिए ? वेश्या का पिछला जीवन पापमय अवश्य रहा, किन्तु जब उसने अपने जीवन को साध (मांज) लिया और वह उस पाप से मुक्त भी हो गई, तब फिर उससे घृणा करने वालों, उसे घृणा की दृष्टि से देखने वालों को क्या कहा जाए ? ईर्ष्या और घृणा यदि पाप है, तो वे लोग वर्तमान में भी पाप में पड़े हुए हैं और आन्तरिक हिंसा के शिकार हो रहे हैं । विवेकशील पुरुषों की दृष्टि में तो उस वेश्या की अपेक्षा भी वे विचार-दरिद्र अधिक दया के पात्र हैं। अभिप्राय यह है कि जहाँ ईर्ष्या है, द्वेष है, घृणा है, मिथ्या अहंकार है और मनुष्य के प्रति अपमान की हीन भावना है, वहाँ हिंसा है। जब हम हिंसा के स्वरूप पर विचार करें तो इस भयानक हिंसा को न भूल जाएँ और जब अहिंसा की साधना के लिए तैयार हों तो पहले इस आन्तरिक हिंसा को दूर करें, तभी चित्त पूर्णतः निर्मल होगा, समता की धारा में अवगाहन करेगा । कम से कम समग्र मानव-जाति को प्रेम एवं मैत्री की दृष्टि से देखेंगे, तभी हम उच्च अहिंसा की आराधना कर सकेंगे। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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