SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा : जीवन की अन्तगंगा हत्या करना धर्म नहीं हो सकता । अहिंसा, संयम और तप यही वास्तविक धर्म है।४ इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं। उनकी हिंसा न जान कर करो, न अनजान में करो और न दूसरों से ही किसी की हिंसा कराओ। क्योंकि सबके भीतर एक-सी आत्मा है। हमारी तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं । ऐसा मान कर भय और वैर से मुक्त होकर किसी भी प्राणी की हिंसा न करो । जो व्यक्ति खुद हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है, वह अपने लिए वैर ही बढ़ाता है। अतः प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखो, जैसा कि अपनी आत्मा के प्रति रखते हो । सभी जीवों के प्रति अहिंसक हो कर रहना चाहिए । सच्चा संयमी वही है, जो मन, वचन और शरीर से किसी की हिंसा नहीं करता। यह है-भगवान् महावीर की आत्मौपम्य दृष्टि, जो अहिंसा में ओत-प्रोत हो कर विराट विश्व के सम्मुख एकात्मानुभूति का एक महान् गौरव प्रस्तुत कर रही है। बौद्धधर्म में अहिंसा-भावना __ 'आर्य' की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए बौद्धधर्म ने अहिंसाप्रिय व्यक्ति को आर्य कहा है। तथागत बुद्ध ने कहा है-“प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं कहलाता, बल्कि जो प्राणी की हिंसा नहीं करता, उसी को आर्य कहा जाता है। सब लोग दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से भय खाते हैं । मानव दूसरों को अपनी तरह जान कर न तो किसी को मारे और न किसी को मारने की प्रेरणा करे। जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है, न दूसरों से जीतवाता है, वह सर्वप्राणियों का मित्र होता है, उसका किसी के साथ वैर नहीं होता ।१० जैसा मैं हूँ वैसे ये हैं, तथा जैसे ये हैं वैसा मैं हूँ-इस प्रकार आत्मसदृश -दशवकालिक ११ -दशवकालिक --उत्तराध्ययन ८।१० ४ धम्मो मंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो । ५ जावंति लोए पाणा तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणे वा न हणे नोवि घायए । ६ अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियाउए । न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए । ७ सयंऽतिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए । हणन्तं वाऽणुजाणाइ वेरं वड्ढई अप्पणो ॥ ८ न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सव्वपाणान, आरियोति पवुच्चति ।। ६ सव्वे तसन्ति दण्डस्स, सव्वेसं जीवितं पियं । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ १० यो न हन्ति न घातेति, न जिनाति न जापते । मित्तं सो सव्वभूतेसु वेरं तस्स न केनचीति ।। -सूत्र कृताङ्ग १।१।१।३ -धम्मपद १६।१५ -धम्मपद १०११ -इतिबुत्तक, पृ० २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy