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________________ अहिंसा का मान-दण्ड तीव्रता और मंदता को परखना जैन-धर्म को इष्ट है । जब इस कसौटी पर हिंसा और अहिंसा को कसेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि एकेन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय को मारने में हिंसक के मन में रौद्र-ध्यान अधिक तीव्र होता है और मरने वाले जीव में भी चेतना अधिक विकसित होने के कारण दुःख की अनुभूति अधिक ही होती है, फलतः उसके आर्तध्यान और रौद्रध्यान भी अधिक तीव्र हो जाते हैं। इस प्रकार जब वहाँ भाव-हिंसा तीव्र है, तो द्रव्य-हिंसा भी स्वभावतः बड़ी ही होगी। दयामूर्ति भगवान् नेमिनाथ __ यदि ऐसा न माना जाय तो भगवान् नेमिनाथ का पशुमोचन-सम्बन्धी जटिल प्रश्न कैसे हल होगा ? वे तो वैराग्य के सागर थे, विवाह नहीं करना चाहते थे, किन्तु उन्हें विवाह के लिए किसी न किसी तरह मना लिया गया और बरात की तैयारी होने लगी; तब उन्हें स्नान कराया गया। कहते हैं, १०८ घड़ों के पानी से स्नान कराया गया। विभिन्न प्रकार के फूलों की अनगिनत मालाएँ पहनाई गईं। यह सब कुछ होता रहा, किन्तु फिर भी उन्होंने यह नहीं कहा कि "मेरे विवाह के लिये इतनी अधिक हिंसा हो रही है ! एक बूंद में असंख्यात जीव हैं और एक फूल की एक पंखुड़ी में असंख्य अनन्त जीव हैं । अतः मैं विवाह नहीं करना चाहता।" इस प्रकार वहाँ पर उन्होंने कोई विरोध प्रकट नहीं किया। लेकिन बरात द्वारिका से चल कर राजा उग्रसेन के यहाँ पहुँची और जब रथारूढ़ हो कर नेमिनाथ तोरण पर आये तो एक बाड़े में कुछ पशु-पक्षियों को घिरा देखा। यहाँ उन पशु-पक्षियों की करुण पुकार उनके कानों से पड़ी और जब उसका कारण पूछा, तो उनके सारथी ने कहा-“महाराज ! ये भद्र प्राणी आपके विवाह प्रसंग पर भोजनार्थ मारने के लिये एकत्र किये गये हैं।"3 सारथी की बात सुनते ही भगवान के अन्तःकरण में दया का सागर उमड़ २ जिन जीवों के एक त्वचारूप स्पर्शन-इन्द्रिय होती हैं, वे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति एकेन्द्रिय कहलाते हैं । स्पर्शन और रसन-जिह्वा वाले लट, गिंडोले आदि द्वीन्द्रिय हैं । स्पर्शन, रसन और घ्राण =नाक वाले चींटी आदि त्रीन्द्रिय हैं । स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु =आँख वाले मक्खी मच्छर आदि चतुरिन्द्रिय हैं । और स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र=कान वाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि पंचेन्द्रिय प्राणी हैं। ३ अह सारही तओ भणइ एए भद्दा उ पाणिणो । तुज्झ विवाहकज्जमि, भोयावेउं बहुजणं ।। -उत्तराध्ययन सूत्र २२, २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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