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________________ ग्रन्थ की गाथा संख्या का उल्लेख करते हुए ही ग्रन्थकार का उल्लेख हुआ है, अतः यह गाथा असम्बद्ध नहीं कही जा सकती। अब प्रश्न यह उठता है कि यह गाथा प्रस्तुत कृति में कब जोड़ी गई? वस्तुतः यह गाथा प्रस्तुत कृति में हरिभद्र की टीका के पश्चात् ही जोड़ी गई होगी और यही कारण हो सकता है कि हरिभद्र ने इस गाथा पर टीका न लिखी हो। दूसरे, यदि हरिभद्र स्वयं इस गाथा को जोड़ते तो मूल गाथाओं के बाद इस गाथा को अवश्य देते, किन्तु उनकी टीका में इस गाथा की अनुपलब्धि यही सिद्ध करती है कि यह गाथा आवश्यक की हरिभद्रीय टीका के बाद ही जुड़ी होगी, किन्तु हरिभद्रीय टीका के पश्चात् मलधारी हेमचन्द्र द्वारा जो टिप्पण लिखे गये उनमें भी इसके कर्ता के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं किया गया। इससे भी यही सिद्ध होता है कि यह गाथा मलधारी हेमचन्द्र के टिप्पण के बाद ही प्रक्षिप्त हुई होगी, अर्थात् ईसा की बारहवीं शती के पश्चात् ही प्रक्षिप्त हुई होगी। ___यह सत्य है कि पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने गणधरवाद की प्रस्तावना में भी ध्यानशतक/झाणाज्झयण के जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित होने में सन्देह व्यक्त किया है। उनके सन्देह का आधार भी हरिभद्रीय टीका और मलधारी हेमचन्द्र के टिप्पण में कर्ता के नाम का अनुल्लेख ही है। पण्डित बालचन्द्रजी पण्डित दलसुखभाई के इस सन्देह से तो सहमत होते हैं. परन्तु दलसुखभाई के इस निर्णय को स्वीकार क्यों नहीं करते हैं कि यह आवश्यक नियुक्तिकार की कृति है। पण्डित दलसुखभाई गणधरवाद की भूमिका में स्पष्टतः यह लिखते हैं कि, 'हरिभद्रसूरि ने इसे जो शास्त्रान्तर कहा है, इससे यह स्वतन्त्र ग्रन्थ है। यह तो उससे फलित नहीं होता है। उसके प्रारम्भ में योगीश्वर और जिन को नमस्कार किया गया है, इस कारण से हरिभद्रसूरि इसे आवश्यकनियुक्तिकार की कृति नहीं मानते हों, यह तो हो नहीं सकता। कारण यह है कि किसी नवीन प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए नियुक्तियों में कितनी ही बार तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है, अतः उसे नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) की ही कृति मानना चाहिए।' यद्यपि इस ग्रन्थ की शैली एवं भाषा की नियुक्ति की शैली एवं भाषा से निकटता है, अत: उसे नियुक्तिकार की कृति मानने में विशेष बाधा नहीं है। पण्डित बालचन्द्रजी यह 'झाणाज्झयण' जिनभद्रगणि की कृति नहीं है इस हेतु पण्डित दलसुखभाई के तर्क का अपने पक्ष में उपयोग करते हैं, किन्तु उनके इस निर्णय को कि यह ग्रन्थ नियुक्तिकार की कृति है, क्यों स्वीकार नहीं करते हैं? भूमिका 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only ..www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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