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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श - लेखक. प्रो. सागरमल जैन भारतीय संस्कृति में अति प्राचीनकाल से ही दो समानान्तर धाराओं की उपस्थिति पाई जाती है- श्रमणधारा और वैदिकधारा । जैन धर्म और संस्कृति इसी श्रमणधारा का एक अंग है । जहाँ श्रमणधारा निवृत्तिपरक रही, वहाँ वैदिकधारा प्रवृत्तिपरक । जहाँ श्रमणधारा में संन्यास व बना, वहाँ वैदिकधारा में गृहस्थजीवन । श्रमणधारा ने सांसारिक जीवन की दु:खमयता को अधिक अभिव्यक्ति दी और यह माना कि शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दु:खों का सागर, अत: उसने शरीर और संसार दोनों से ही मुक्ति को अपनी साधना का लक्ष्य माना । उसकी दृष्टी में जैविक एवं सामाजिक मूल्य गौण रहे और अनासक्ति, वैराग्य और आत्मानुभूति के रुप में मोक्ष या निर्वाण को ही सर्वोच्च मूल्य माना गया । इसके विपरीत वैदिकधारा ने सांसारिक जीवन को वरेण्य मानकर जैविक एवं सामाजिक मूल्यों अर्थात् जीवन के रक्षण एवं पोषण के प्रयत्नों के साथसाथ पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता को प्रधानता दी । फलत: वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं पारस्परिक सहयोग हेतु प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं, यथा- हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ हो, हमारी गायें अधिक दूध दें, वनस्पति एवं अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हों, हममें परस्पर सहयोग हो आदि । ज्ञातव्य हैं कि वेदों में वैराग्य एवं मोक्ष की अवधारणा अनुपस्थित हैं, जबकि वह श्रमणधारा का केन्द्रीय तत्त्व है । इस प्रकार ये दोनों धारायें दो भिन्न जीवन-दृष्टियों को लेकर प्रवाहित हुई हैं। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में भी इन्ही भिन्न-भिन्न जीवन-दृष्टियों का प्रतिपादन पाया जाता हैं । श्रमण परम्परा के साहित्य में संसार की दु:खमयता को प्रदर्शित कर त्याग और वैराग्यमय जीवन शैली का विकास किया गया, जबकि वैदिक साहित्य में ऐहिक जीवन को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने हेतु प्रार्थनाओं की और सामाजिक-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) और भौतिक उपलब्धियों के हेतु विविध कर्मकाण्डों की सृजना हुई । प्रारम्भिक वैदिक साहित्य, जिसमें मुख्यत: वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ समाहित हैं, में लौकिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों का ही प्राधान्य हैं, इसके विपरीत श्रमण परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य में संसार की दुःखमयता और क्षणभंगुरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई हैं । संक्षेप में श्रमण परम्परा का साहित्य वैराग्य प्रधान हैं। श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग साधना की परम्परा के अस्तित्व के संकेत हमें मोएंजोदरो और हड़प्पा की संस्कृति के काल से ही मिलने लगते हैं । यह माना जाता है कि हड़प्पा संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्ववर्ती ही रही है । ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में भी व्रात्यों और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन श्रमण परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दर्भाग्य से वह आज १. पार्श्वनाथ विद्याश्रम-वाराणसी से प्रकाशित Aspects of Jainology Vol.7 से उद्धृत ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001143
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutram Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages566
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, G000, G015, & agam_samvayang
File Size42 MB
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