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________________ प्रमेयरत्नमालायां उपचारो हि मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च प्रवर्तते । तत्र वचनस्य परार्थानुमानत्वे निमित्तं तद्धेतुत्वम् । तस्य प्रतिपाद्यानुमानस्य हेतुस्तद्धेतुः; तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्मान्निमित्तात्तद्वचनमपि परार्थानुमानप्रतिपादकवचनमपि परार्था - नुमानमिति सम्बन्धः; कारणे कार्यस्योपचारात् । अथवा तत्प्रतिपादकानुमानं हेतुर्यस्य तत्तद्धेतुः, तस्य भावस्तत्त्वम् । ततस्तद्वचनमपि तथेति सम्बन्धः । अस्मिन् पक्ष कार्ये कारणस्योपचार इति शेषः । वचनस्यानुमानत्वे च प्रयोजनमनु मानावयवाः प्रतिज्ञादय इति शास्त्रे व्यवहार एव, ज्ञानात्मन्यनंशे तद्-व्यवहारस्याशक्यकल्पनात् । तदेवं साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानभित्यनुमान सामान्यलक्षणम् 1 ११२ तदनुमानं द्वेधेत्यादिना तत्प्रकारं च सप्रपञ्चमभिधाय साधनमुक्तलक्षणापेक्षयैकमप्यतिसंक्षेपेण भिद्यमानं द्विविधमित्युपदर्शयति स हेतु द्वेषोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥ ५३ ॥ मुख्य का अभाव होने पर तथा प्रयोजन और निमित्त के होने पर उपचार की प्रवृत्ति होती है । वहाँ वचन का परार्थानुमानपने में कारणपना ही उपचार का निमित्त है । अतः प्रतिपाद्य ( शिष्य ) उसके लिये जो अनुमान, उसका प्रतिपादक वचन भी परार्थानुमान है; ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये; क्योंकि यहाँ अनुमान के कारण वचनों में ज्ञानरूप कार्य का उपचार किया गया है । अथवा ( प्रकारान्तर से कहते हैं 1 ) परार्थानुमान का प्रतिपादक जो वक्ता पुरुष उसका स्वार्थानुमान है कारण जिसके ऐसा जो परार्थानुमान का वचन वह भी अनुमान है, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये । इस पक्ष में स्वार्थानुमानवचनलक्षण रूप कार्य में कारण का उपचार है, यह अर्थ सूत्र में शेष है । वचन को अनुमानपना कहने में प्रयोजन यह है कि प्रतिज्ञा आदिक अनुमान के अवयव हैं, ऐसा शास्त्र में व्यवहार है । ज्ञानात्मक और निरंश अनुमान में प्रतिज्ञादि के व्यवहार की कल्पना अशक्य है । इस प्रकार साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है, यह अनुमान का सामान्य लक्षण है । वह अनुमान दो प्रकार का है, इत्यादि रूप से उसके प्रकारों को भी विस्तार से कहकर अन्यथानुपपन्नत्व रूप लक्षण की अपेक्षा साधन एक प्रकार का होने पर भी अतिसंक्षेप से भेद करने पर वह दो प्रकार का है, इस बात को दिखलाते हैं सूत्रार्थ - अविनाभाव लक्षण से लक्षित वह हेतु उपलब्धि और अनुपलब्धि के भेद से दो प्रकार का है ।। ५३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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